Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 64
________________ उत्तराध्ययन और गीता में समानता - पं. विश्वनाथ मिश्र दृश्यमान जगत् में दो ही तत्त्व हैं - एक तो दृश्य और दूसरा अदृश्य। एक जड़ तो दूसरा चेतन। एक नित्य प्राप्त, तो दूसरा क्षणे क्षणे विलीयमान। एक का भास तो दूसरे की प्रतीति। जिसकी प्रतीति होती है, वह व्यवहारोपयोगी तो है किन्तु परमार्थ नहीं है। परमार्थ तो वही है जिसका भास होता है । जो केवल व्यवहार को ही सर्वस्व मान बैठे हैं उन्हें परमार्थ की अनुभूति कथमपि संभव नहीं है। यदि जड़भूत समष्टि दृश्यमान ही सब कुछ है तब मरे हुए शरीर के प्रति आकर्षण क्यों नहीं होता? इसलिए यह मानना चाहिए कि सर्वावभासक, सबका प्रेरपिता देहातिरिक्त एक आत्मतत्त्व है जो नित्य अखण्ड, अच्छेद्य, अभेद्य तथा सर्वोपाधि विवर्जित है। कितनी विलक्षण बात है कि अनेक मतभेदों के रहते हुए भी वैदिक और जैनदोनों परम्पराओं में यह आत्मतत्त्व निर्विवाद रूप से मान्य है। मानव जीवन का चरम लक्ष्य आत्मस्वरूपोपलब्धि या दु:खत्रय का एकान्तिक नाश है। इस निबन्ध का विषय है उत्तराध्ययन और गीता। दोनों में विषय के वैविध्य होने पर भी इस लेख में आत्मवाद, कर्मवाद और मानव जीवन की दुर्लभता जैसे कतिपय विषय ही विवेच्य हैं । जन्म से कर्म और कर्म से जन्म यह परम्परा अनादि है। मानव जीवन ही चरम लक्ष्य की सिद्धि में एकमात्र कारण है। यह बात निर्विवाद है किन्तु यह जन्म दुर्लभ है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि संसारी जीव नाना प्रकार के कर्मों का अर्जन कर कभी देवलोक, कभी नरक, कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है। सौभाग्यवश मनुष्यगति के प्रतिबन्धक कर्मों का नाश होने पर वह मनुष्यत्व को प्राप्त करता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि कम्माणं तु पहाणये आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहि मणुपत्ता आययंति मणुस्सयं ॥' मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है जिसे सुनकर जीव तप, तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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