Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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संदर्भ :
1. तव कथामृतं तप्तजीवन, कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रामदाततं भुविगृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ - श्रीमद्भागवत् 10/31/9 शास्त्री, नेमिचन्द–हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, वैशाली,
1965 पृ. 438 3. शर्मा, जगन्नाथ – कहानी का रचना विधान, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, 1956,
पृ. 4-5 अमरकोश, 1/5/6 (क) अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा चेव मीसिया य कहा- दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा
188, पृ. 212 (ख) एत्थ सामनओ चत्तारि कहाओ हवन्ति । तं जहा- अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा,
संकिण्णकहा य-समराइच्चकहा, पृ. 2 (ग) महापुराण (जिनसेन) प्रथम, परि. 118, 119 6. धवलाटीका, पुस्तक 1, पृ. 104 7. (क) दिव्वं, दिव्वमाणुसं, माणुसं च। तत्थ दिव्वं नाम जत्थ केवलमेव देवचरिअंवण्णिज्जइ। -
समराइच्चकहा, पृ. 2 (ख) तं जह दिव्वा तह दिव्वमाणुसीं माणुसी तहच्चेय— लीलावई कहा, गाथा 35 8. लीलावई कहा, गाथा 36 9. तओ पुण पंच कहाओ। तं जहा-सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा। तहावरा कहिवत्ति
संकिण्ण कहात्ति।- कुवलयमाला, पृ. 4, अनुच्छेद-7 10. दी जिन इन दी हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, सम्पादक मुनि जिनविजय, पृ. 5 11. आन दी लिटरेचर ऑफ दी श्वेताम्बर ऑफ गुजरात, पृ. 6, 8
वरिष्ठ व्याख्याता प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूँ-341 306 (राज.)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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