Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 51
________________ कथाओं में प्रयुक्त पात्रों के आधार पर तीन भेद किए जाते हैं: 1. दिव्यकथा- जिस कथा में दिव्य व्यक्ति पात्र हों तथा उन्हीं के द्वारा घटनाएँ घटित हों। 2. मानुषी कथा- जिसमें मनुष्य पात्र हों, मानुषी कथाएँ कहलाती हैं। 3. दिव्य-मानुषी कथा-जिसमें देव तथा मनुष्य पात्र हों, वे दिव्य-मानुषी कथाएँ कही जाती हैं। प्राकृत कथाओं में प्रयुक्त भाषा के आधार पर भी कथा के तीन भेद प्राप्त होते हैं :1. संस्कृत 2. प्राकृत 3. मिश्र उद्योतनसूरि ने स्थापत्य के आधार पर कथाओं के पाँच भेद गिनाए हैं:1. सकलकथा 2. खण्डकथा 3. उल्लाप कथा 4. परिहासकथा 5. संकीर्णकथा। प्राकृत कथाओं का विषय एवं उसकी व्यापकता जैन अंग आगम, उपांग व टीका साहित्य के प्रचारार्थ प्राकृत कथा साहित्य में अभूतपूर्व विकास की धारा दिखाई देती है। कथा के माध्यम से प्राकृत कथाकारों ने समाज और जीवन की विकृतियों पर जितना गहरा प्रहार किया है, उतना साहित्य की अन्य विधाओं के द्वारा कभी संभव नहीं था। समाज और व्यक्ति के विकारी जीवन पर चोट करना मात्र ही इन कथाओं का लक्ष्य नहीं था, अपितु विकारों का निराकरण कर जीवन में सुधार लाना तथा आत्मा के कल्याण के साथ-साथ जीवन को सर्वाङ्गीण सुखी बनाना भी था। कथानक संयोजना में जैन कथाकार पुराणोक्त महापुरुषों के जीवन चरित, मुनिधर्म, तत्त्व-उपदेश, अलौकिक तत्त्वों का निरूपण तथा सिद्धान्त-विवेचन को भी सीधे-सीधे अथवा अवान्तर कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते रहे हैं। परम्परा से चली आ रही सामाजिक मर्यादाओं की व्यवस्था का अतिक्रमण कर नये एवं युगानुरूप सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों को स्थापित करने का सफलतम प्रयोग जैन कथाकारों ने अपने दृढ़ आचार का पालन करते हुए किया है। उदारपूर्ण मानवीय साहसिक दृष्टिकोण को अपनाकर नूतन प्रवृत्तियों और मौलिक भावनाओं से समाज को अनुप्राणित किया। यही कारण है कि उन्होंने अपनी सृजनात्मक कल्पना शक्ति से लौकिक कथा के आवरण में धर्म, दर्शन व आध्यात्मिकता का पुट देकर इसे रोचक बनाया। यद्यपि जैनधर्म प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाने वाला मार्ग है। कथाकारों की शुष्क उपदेशात्मक शैली का प्रभावोत्पादक शैली के बिना कोई मूल्य नहीं था। किन्तु युग के अनुरूप आचार्यों ने/कथाकारों ने धर्म, दर्शन के सिद्धान्तों मात्र से कथाओं को बोझिल नहीं 46 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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