Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ प्राकृत कथा साहित्य : उद्भव, विकास एवं व्यापकता -डॉ. जिनेन्द्र जैन भारतीय वाङ्मय में संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य का अपना विशेष स्थान है। साहित्य की समस्त विधाओं में प्राप्त इन तीनों भाषाओं के साहित्य का अध्ययन भारतीय संस्कृति एवं उसके मूलस्रोत्र को जानने में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराता है/करता है। फलतः प्राचीन ऋषियों, आचार्यों एवं महापुरुषों ने इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज विषयक विपुल साहित्य लिखा जिनमें पुराण, महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथा-चरित, नाटक, शिलालेख, व्यंग्य, गीति, स्तोत्र, चम्पू आदि अनेक विधाएँ परिगणित हैं। इन्हीं विधाओं के आलोक में लगभग ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से लेकर 17-18वीं शताब्दी तक लिखा गया प्राकृत साहित्य का अपना महत्त्व है। इन विधाओं में भी मानव एवं समाज का अत्यधिक निकटता का सम्बन्ध कथा साहित्य से रहा है। अतः प्राकृत कथा साहित्य के उद्भव विषयक मूलस्रोत, स्वरूप, भेद तथा उसके विषय और व्यापकता सम्बन्धी बिन्दुओं को उजागर करने का प्रयास प्रस्तुत आलेख में किया गया है। यह सर्वमान्य है कि कथा साहित्य का सम्बन्ध मानव के आदिकाल से ही है, क्योंकि मानव का जब से पृथ्वी पर अवतरण हुआ और क्रमशः उसका विकास प्रारम्भ हुआ तभी से उसे (मानव को) मनोविनोद तथा ज्ञानवर्धन की आवश्यकता महसूस हुई। अतः 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' इस उक्ति के अनुसार मानव ने अपने मनोविनोद एवं ज्ञानवर्धन का एक माध्यम बनाया- कथा-कहानी। यही कारण है कि मानव नेत्रोन्मीलन से लेकर अपनी अन्तिम सांस तक कथाकहानी कहता है और सुनता है। इसमें जिज्ञासा और कौतूहल की ऐसी शक्ति समाहित है जो आबाल-वृद्ध सभी के लिए ग्राह्य है। श्रीमद्भागवत् में संसार-ताप से संतप्त प्राणी के लिए कथा को संजीवनी-बूटी कहा है। - - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122