Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ 1. मैं लोक में रहता हूँ। यह वक्तव्यता सत्य है, क्योंकि उत्तरदाता का निवास स्थान में ही है किन्तु यह दृष्टिकोण वास्तविक वसति से बहुत दूर है, इसलिए यह अविशुद्ध दृष्टिकोण है। 2. 'मैं तिर्यग्लोक में रहता हूँ।' यह वास्तविक वसति से कुछ निकट है, इसलिए यह विशुद्धदृष्टिकोण है। 3. 'मैं जम्बू द्वीप में रहता हूँ।' यह वास्तविक वसति से और अधिक निकटतर है, इसलिए यह विशुद्धतर दृष्टिकोण है। 2 इसी प्रकारण क्रमशः भारतवर्ष, दक्षिणार्ध-भरत, पाटलिपुत्र, देवदत्तगृह और गर्भगृह में क्रमशः वास्तविक वसति की निकटता बढ़ती जाती है और उत्तरोत्तर विशुद्धता भी बढ़ती जाती है। 2. व्यवहारनय व्यवहार नय का वक्तव्य भी नैगमनय के समान है। 3. संग्रहनय-संग्रहनय निर्विकल्प होता है, इसलिए उसके दृष्टिकोण से उत्तरदाता कहता है कि मैं बिछौने पर रहता हूँ।45 ___4. ऋजुसूत्रनय-मैं जिन आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ हूँ, वहाँ रहता हूँ- यह ऋजुसूत्रनय का दृष्टिकोण है।46 5.शब्दनयत्रयी-मैं आत्म स्वरूप में रहता हूँ। वास्तव में प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में ही रहता है। इसलिए शब्दनयत्रयी का दृष्टिकोण वास्तविक वसति का दृष्टिकोण है।” 3. प्रदेशदृष्टान्त प्रकृष्ट देश का नाम प्रदेश है। निरंश देश, निर्विभागी भाग, अविभागी परिच्छेद-ये प्रदेश के पर्यायवाची शब्द हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और एक जीव, ये अखण्ड द्रव्य हैं। देश उसका कल्पित भाग है तथा प्रदेश उसका परमाणु जितना भाग है। अनुयोग द्वार में नैगमादि नयों को प्रदेश दृष्टान्त के माध्यम से निम्न प्रकार समझा गया है 1. नैगमनय-नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को मान्य करता है, इसलिए धर्म आदि छहों के प्रदेश स्वीकृत करता है।48 2. संग्रहनय-संग्रहनय के अनुसार देश कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, इसलिए वह "देश का प्रदेश" इस विकल्प को स्वीकार नहीं करता। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों से सम्बन्धित देश का जो प्रदेश है वह उन द्रव्यों का ही प्रदेश है, क्योंकि वह देश उससे भिन्न नहीं है। इसलिए छहों का प्रदेश नहीं होता। पांचों का होता है। "पांचों का प्रदेश" यह संग्रहनय की स्वीकृति है। 26 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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