Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 32
________________ 3. व्यवहारनय- व्यवहारनय कहता है- एक ही प्रदेश पांचों द्रव्यों से सम्बन्धित हो तब यह कथन उचित हो सकता है। जैसे पांच भाइयों का सोना, घर, बगीचा आदि। यहाँ पाँचों द्रव्यों के प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए द्रव्य और लक्षण की संख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रदेश पांच प्रकार के होते हैं। 4. ऋजुसूत्रनय-व्यवहार नय के अभिमत से अपनी असहमति व्यक्त करता हुआ ऋजुसूत्रनय कहता है - पाँच प्रकार का प्रदेश मानने से उसके पच्चीस भेद हो जायेंगे। प्रत्येक प्रदेश के पाँच प्रकार पाँच द्रव्य प्रदेशों से गुणित होने पर पच्चीस होते हैं । इसलिए यह कहना उचित होगा कि प्रदेश धर्म आदि पाँच विभागों से विकल्पनीय है। इस प्रकार मानने से प्रदेश के पाँच भेद घटित हो जाते हैं।51 5. शब्दनय-प्रदेश की विकल्प स्वीकृति पर आपत्ति करता हुआ शब्दनय कहता है—विकल्प की स्थिति में धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय का हो जायेगा। अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धमास्तिकाय का हो जायेगा। जैसे कोई व्यक्ति कभी राजा का सेवक हो जाता है तो कभी अमात्य हो जाता है। नियत व्यवस्था के अभाव में प्रदेश के साथ भी यही घटित होगा। इसलिए अनवस्था के प्रसंग को टालने के लिए यह मानना उचित है कि जो धर्मात्मक प्रदेश है- धर्मास्तिकाय से अभिन्न प्रदेश है वह प्रदेश धर्म है। इसी प्रकार अधर्म और आकाश का प्रदेश है। जीव और स्कन्ध संख्या में अनन्त हैं। इनका प्रदेश जीवत्व और स्कन्धत्व से अभिन्न न होने के कारण जीवात्मक प्रदेश नो जीव हैं, स्कन्धात्मक प्रदेश नो स्कन्ध हैं। यहाँ "नौ" शब्द देशवाचक है। एक जीव का प्रदेश सकल जीव में व्याप्त नहीं है, इसलिए वह उसके एक भाग में है अर्थात् जीव का एक देश है।2। (6)समभिरूढ़नय-धर्म-प्रदेश शब्द में दो समास संभावित हैं .."धर्म प्रदेशः" इस विग्रह वाक्य में तत्पुरुष समास होता है, जैसे- हस्ती, तीर्थे काक: यह सप्तमी तत्पुरुष समास है। यदि विग्रह वाक्य में प्रथमा विभक्ति की विवक्षा करते हैं, जैसे-"धर्मश्चासौ प्रदेशश्च" तो कर्मधारय समास होता है, जैसे नीलं च तद् उत्पलं च तद् । तत्पुरुष समास भेद और अभेद दोनों में होता है। जैसे—कुण्डे बदराणि, घटे रूपम्, राज्ञः पुरुषः, राज्ञः शरीरम्। कुण्डे बदराणि, राज्ञः पुरुषः भेदपरक समास है। घटे रूपम् और राज्ञः शरीरम् अभेदपरक है। धर्मे-प्रदेशः इसमें तत्पुरुष समास होने से भेद और अभेद का सन्देह हो सकता है। इसलिए समभिरूढ़नय विशेषण सहित कर्मधारय को स्वीकार करता है। (7) एवंभूत का अभिमत है-द्रव्य अखण्ड होता है। उसमें देश और प्रदेश की कल्पना करना व्यर्थ है। इसलिए देश भी अवास्तविक है। प्रदेश भी अवास्तविक है।54 इस प्रकार अनुयोगद्वार में विषय-प्रवर्तन में नयों का सहारा लिया जाता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003_ - 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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