Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ 'प्रयोग निरपेक्ष परिवर्तन को विस्रसा कहा जाता है। शरीर आदि की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है, वह प्रयोग परिणत है । " सिद्धसेनगणी ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है। 72 अकलंक ने प्रयोग का अर्थ पुरुष का शरीर, वाणी और मन का संयोग किया है । जीव के प्रयोग और स्वभाव - -इन दोनों के योग से जो परिणमन होता है, वह मिश्रपरिणत है । सिद्धसेनगणी ने मिश्र जीव प्रयोग सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति को कहा है।74 अभयदेवसूरि ने मिश्र को समझाने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं 1. मुक्त जीव का शरीर, 2. औदारिकादि वर्गणाओं का शरीर रूप में परिणमन । शरीर का निर्माण जीव ने किया है, इसलिए वह जीव के प्रयोग से परिणत द्रव्य है । स्वभाव से उसका रूपान्तरण होता है, इसलिए वह मिश्रपरिणत द्रव्य है । औदारिक आदि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न है । जीव के प्रयोग से वे शरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें भी जीव का प्रयोग और स्वभाव - दोनों का योग है । · उन्होंने स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया - प्रयोग परिणाम और मिश्र परिणाम में क्या अन्तर है ? उन्होंने समाधान में कहा - प्रयोग परिणाम में भी स्वभाव परिणाम है किन्तु वह विवक्षित नहीं है ।” सिद्धसेनगणी के अनुसार मिश्र परिणाम में प्रयोग और स्वभाव - दोनों का प्राधान्य विवक्षित है, इसका उल्लेख किया है ।" आचार्य महाप्रज्ञ ने इन दोनों व्याख्याओं की संगति प्रस्तुत करते हुए लिखा – “उक्त दोनों व्याख्याओं की संगति कार्य-कारण के संदर्भ में बिठाई जा सकती है। मिश्र-परिणाम के उदाहरण हैं घट और स्तम्भ । घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है और मिट्टी में घट बनने का स्वभाव है, इसलिए घट मिश्रपरिणत द्रव्य है । इसकी तुलना वैशेषिक सम्मत समवायि कारण से की जा सकती है। 7 प्रयोग परिणाम में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती। उसका निर्माण जीव के आंतरिक प्रयत्न से ही होता है। मिश्र-परिणाम में जीव के प्रयत्न के साथ निमित्त कारण का भी योग होता है । स्वभाव परिणाम जीव के प्रयत्न और निमित्त दोनों से निरपेक्ष होता है ।" भगवती में प्रयोग परिणत का वर्णन विस्तार से हुआ है।” इससे फलित होता है - जीव अपने प्रयत्न से शरीर की रचना, इन्द्रिय की रचना, वर्ण का निष्पादन और संस्थान की संरचना करता है । प्रयोग परिणाम से पुरुषार्थ और स्वभाव परिणाम से स्वभाववाद फलित होता है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए उसे सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद एवं स्वभाववाद दोनों मान्य हैं 1 विस्त्रसा, प्रयोग एवं मिश्र परिणमन का सिद्धान्त कार्यकारण के क्षेत्र में नवीन दृष्टि प्रदान करता है । विस्रसा परिणत द्रव्य कार्यकारण के नियम से मुक्त होता है । प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। मिश्रपरिणत द्रव्य में निर्वर्तक और निमित्त तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 9 www.jainelibrary.org

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