Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 28
________________ 1. एक-भविक 2. बद्धायुष्क 3. अभिमुखनामगोत्र 1. एकभविक-जो जीव वर्तमान जीवन पूरा कर अगले भव में शंख रूप में उत्पन्न होगा, वह शंखत्व का आयुष्य न बंधने पर भी एक भविक शंख कहलाता है। शंख भव की प्राप्ति के बीच में एक वर्तमान भव है, इस अपेक्षा से उसे एकभविक कहा गया है। एक भविक की काल सीमा के बारे में लिखा है कि जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: करोड़ पूर्व तक एकभविक रहता है। जो जीव पृथ्वी आदि के भव में अन्तर्मुहूर्त जीकर अनन्तर भव में शंख बनता है, वह अन्तर्मुहर्त की स्थिति वाला एक भविक शंख होता है जो जीव मत्स्य आदि किसी भव में पूर्व कोटि जीकर फिर शंख के रूप में उत्पन्न होता है वह पूर्वकोटि की आयु वाला एक भविक शंख है। 12 ____ 2. बद्धायुष्क-जिस जीव ने शंख (द्वीन्द्रिय जंतु) का आयुष्य बांध लिया है पर अभी उस जीवन में उत्पन्न नहीं हुआ है, वह बद्धायुष्क कहलाता है। बद्धायुष्क की काल सीमा के बारे में लिखा है कि बद्धायुष्क जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः करोड़ पूर्व का तिहाई भाग तब बद्धायुष्क रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि वर्तमान आयुष्क का एक तिहाई भाग शेष रहता है तब आयुष्क का बंध होता है, इसलिए उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कोटि त्रिभाग बतलाई गई है। 3. अभिमुख नामगोत्र- शंख भव प्राप्त जीवों के जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त पश्चात् द्वीन्द्रिय जाति नाम और नीच गोत्र कर्म उदय में आते हैं। जब तक इनका उदय नहीं होता है, वे जीव अभिमुखनामगोत्र कहलाते हैं । अभिमुखनामगोत्र कला जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक अभिमुखनाम गोत्र वाला रहता है। अभिमुखनाम गोत्रता भावी जन्म की अत्यन्त निकटता में होती है, इसीलिए इसकी स्थिति उपरोक्त प्रकार से की गयी है। इन तीनों स्थितियों के संबंध में कहा गया है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह की दृष्टि से इन तीनों ही स्थितियों के लिए शंख शब्द का प्रयोग हो सकता है। नैगमनय और व्यवहारनय लोक व्यवहार को मान्य करते हैं तथा अशुद्ध संग्रहनय भी नैगमनय और व्यवहारनय का अनुसरण करता है, इसलिए ये तीनों प्रकार के शंख को मान्य करते हैं। ऋजुसूत्र नय को द्विविधि शंख इष्ट है। जैसे बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र वाला।16 आर्यमंगु ने भी तीन प्रकार के शंख माने हैं। ऋजुसूत्रनय के अभिप्राय से अतिप्रसंग का निवारण करने के लिए आर्य समुद्र दो प्रकार के शंख को मान्य करते हैं।" तीनों शब्द नय शुद्धतर होने के कारण केवल एक ही शंख को स्वीकृत करते हैं, आर्य सुहस्ती का भी यही मत है।18 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - - 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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