Book Title: Tulsi Prajna 1996 07 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ जैन धर्म एवं पर्यावरण सुरेश जैन पृथ्वी तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जीव एवं अजीव दो ही प्रकार के पदार्थ पाये जाते हैं । जीवों को वैज्ञानिक आधार पर वनस्पति एवं प्राणियों में बांटा गया है। जबकि जैन धर्म में ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर 'जीव' को विभक्त किया गया है। निर्जीव पदार्थों में हवा, प्रकाश, ऊर्जा आदि आते हैं। जैसा कि सर्वविदित है कि सभी जीवों की संरचना विभिन्न निर्जीव पदार्थ कार्बन नाइट्रोजन, सल्फर, फास्फोरस आदि एवं एक अजर-अमर ऊर्जा-आत्मा के सहयोग से हुई है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड पर उपस्थित सभी निर्जीव एवं जीव पदार्थों में एक बहुत ही जटिल तथा न टूटने वाला सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध इतना पुराना है जितना कि इस पृथ्वी एवं ब्रह्माण्ड का इतिहास । यह सम्वन्ध दिन प्रतिदिन जटिल होता जाता है। इस जटिल एवं न टूटने वाले सम्बन्ध को किन्हीं भी अप्राकृतिक तरीकों से असंतुलित करना सभी पदार्थों, यहां तक की मनुष्य जीवन से खिलवाड़ करना है । करोड़ों वर्षों से बने जीवों एवं निर्जीवों के सम्बन्ध एवं प्राकृतिक संतुलन को सही ढंग से बनाये रखना ही मानव धर्म है, विश्व धर्म है, सभी जीवों का धर्म है। पर्यावरण शब्द परि एवं आवरण दो शब्दों के मिलकर बना है जिसका सीधा मतलब है चारों तरफ पाये जाने वाला आवरण । हमारे चारों तरफ पायी जाने वाली सभी वस्तुएं हमारा पर्यावरण बनाती हैं। यह शरीर के बाहर जैसे हवा, पानी, ताप, पेड़-पौधे, विभिन्न जीव आदि एवं शरीर के अन्दर जैसे दिल, दिमाग एवं दूसरे अंग हो सकते हैं। जीवन में शरीर को बाहरी पदाथों से सामंजस्य के लिए शरीर का आंतरिक पर्यावरण शुद्ध एवं सन्तुलित होना बहुत जरूरी है । वस्तुतः प्रकृति के नियम ही धर्म एवं स्वास्थ्य के नियम हैं, इसलिए इन नियमों के अनुसार रहने से स्वास्थ्य एवं संतुलित शरीर के साथ-साथ शुद्ध वातावरण भी मिलता है। विज्ञान मानव मस्तिष्क की देन है एवं इसने शरीर को भौतिक आराम देने में काफी सफलता प्राप्त की है। आज का प्रदूषित पर्यावरण हमारी बढ़ती हुई भौतिक इच्छाओं एवं अपूर्ण शिक्षा का परिणाम है। आज का बढ़ता हुआ प्रदूषण आने वाली सन्तानों एवं सभी जीवों के लिये घातक है, इसलिये इसे प्राकृतिक एवं धार्मिक नियमों से युक्त शिक्षा द्वारा हटाना होगा । बच्चों को यह बताना होगा कि मानव इस विशाल प्रकृति का एक सूक्ष्म अंग है न कि इसका मालिक । हमें प्राकृतिक नियमों को पालकर सभी जीवों के साथ मिलकर रहना होगा । जैसा कि "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" शब्दों से विदित है। बंड २२, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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