Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ 2] हरने के लिए गन्ने के खेत रस रूपी घड़े जैसे गन्नों द्वारा सुशोभित थे । प्रत्येक गोकुल में मानो दूध की नदी ने शरीर धारण कर लिया हो ऐसी दुग्ध प्रस्रवणकारिणी गौए पृथ्वी को सिंचित करती थीं । कुरुक्षेत्र के कल्पवृक्ष जिस प्रकार युगलों द्वारा शोभित होते हैं उसी प्रकार फल प्रदान करने वाले वृक्ष तल उपविष्ट पथिकों द्वारा सुशोभित थे । ( श्लोक ३ - १३ ) इसी देश में पृथ्वी के तिलक स्वरूप ऐश्वर्य के भण्डार यथानाम तथा गुण सम्पन्न सुसीमा नामक एक नगरी थी । श्रसाधारण समृद्धिमय पृथ्वी के मध्य भाग में किसी असुर देवता की कोई नगरी प्रकट हो गई हो इस भांति वह नगरी - रत्न सुशोभित थी । उस नगरी में अकेली लड़कियां भी रत्नमय दीवारों पर उनका प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण सखियों से परिवृत लगती थीं । उस नगरी के चारों ओर समुद्र-सी परिखायुक्त और विचित्र रत्नमय शिला निर्मित जम्बूद्वीप के प्राकार-सी प्राकार थी । मदजल वर्षरणकारी हाथियों के घूमनेफिरने से पथ की धूल उसी प्रकार शान्त थी जिस प्रकार वर्षा होने पर शान्त हो जाती है । सूर्यालोक जिस भांति कमलिनी कोष में प्रवेश नहीं कर सकता उसी प्रकार कुलवती स्त्रियों के अवगुण्ठन में भी प्रवेश नहीं कर पाता । चैत्यों के ऊपर की पताकाएँ इस प्रकार उड़ती रहतीं मानो वे हाथ के इशारे से कहती- तुम प्रभु मन्दिर का उल्लंघन मत करो । आकाश को श्याम वर्ण बनाने वाले और पृथ्वी को जलपूर्ण करने वाले उद्यान धरती पर उतर आए मेघों से लगते थे । गगनचुम्बी शिखरयुक्त स्वर्ण और रत्नमय हजार-हजार क्रीड़ापर्वत मेरुपर्वत की भांति शोभायमान थे । वह नगरी ऐसी प्रतिभासित हो रही थी मानो धर्म, अर्थ और काम ने एक उच्च प्राकार विशिष्ट संकेत स्थान का निर्माण किया है । ऊपर और नीचे प्रकाश में एवं पाताल में स्थित अमरावती और भोगवती के मध्य अवस्थित अतुल सम्पत्तिशाली वह नगरी ऐसो प्रतीत होती मानो उनकी सहोदरा हो । ( श्लोक १४ - २४) उसी नगरी में चन्द्रमा के समान निर्मल और गुण रूप किरणों से विमल आत्म सम्पन्न विमलवाहन नामक राजा राज्य करते थे । वे प्रजा का पालन-पोषण करते, उन्हें गुणवान बनाते, उन्नतिशील बनाते । वे स्वकृत अन्याय को भी सहन नहीं करते थे

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 198