Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 12
________________ चलता है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, परिवर्तन होता रहता है। अनादि अज्ञान मिथ्यात्व के कारण जीव को न अपने स्वरूप का पता है, न संसार के जन्म-मरण के दुःखों का पता है और न ही इनसे छूटने का उपाय ही मालूम है। जब जीव अपनी बुद्धि का सदुपयोग करता है, सद्गुरूओं का सत्संग, जिनवाणी का स्वाध्याय, चिन्तन, मनन करता है तब उसे अपने स्वरूप का बोध होता है और संसार का स्वरूप भी जानने में आता है। भेदज्ञान द्वारा निज शुद्धात्मानुभूति युत सम्यग्दर्शन होने से वह मुक्ति मार्ग पर चलता है। इसके लिए पाप-विषय-कषाय से छूटने-बचने के लिए व्रत, नियम, संयम का पालन करता है । सारभूत बात क्या है? इसके लिए स्व-पर का यथार्थ निर्णय करता है । अपने लिए इष्ट-उपादेय-हितकारी क्या है ? इसका सही पक्का निर्णय करता है, यही सम्यग्ज्ञान है। जिसके होने पर मुक्ति मार्ग और संसार का स्वरूप स्पष्ट प्रत्यक्ष दिखता है। भेदज्ञान, तत्व निर्णय पूर्वक, वस्तु स्वरूप को जानने वाला सम्यग्ज्ञानी होता है, तब सम्यग्चारित्र की साधना कर मुक्ति परमानंद, परमात्म पद की प्राप्ति होती है । भेदज्ञान - इस शरीरादि (क्रिया और भाव ) से भिन्न मैं एक अखण्ड, अविनाशी, चैतन्यतत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं । ऐसा अनुभव प्रमाण सिद्ध होना ही सम्यग्दर्शन कहलाता है । तत्वनिर्णय- जिस समय, जिस जीव का, जिस द्रव्य का, जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई टाल, फेर बदल सकता नहीं। इससे जीवन में समता शांति आती है और विवेकपूर्वक संयम का पालन होता है। वस्तुस्वरूप मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, यह एक - एक समय की चलने वाली पर्याय और जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध, निश्चित, अटल है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। ऐसा अनुभूतियत निर्णय स्वीकार होने पर सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है और साधक, ज्ञायक दशा में रहने लगता है । १९ सारमत का प्रयोजन ही सम्यग्ज्ञानी होना है। यह सारमत का तीसरा ग्रन्थ श्री त्रिभंगीसार है । इसके पूर्व ज्ञान समुच्चय सार और उपदेश शुद्ध सार में जिनेन्द्र कथित द्वादशांग वाणी का पूरा सार, आगम, अध्यात्म और अपने अनुभव प्रमाण सद्गुरू ने वर्णन किया है। श्री त्रिभंगीसार का प्रयोजन साधक को सावधान करना है; क्योंकि ज्ञान का मार्ग बहुत सूक्ष्म होता है। यदि निश्चय सम्यग्दर्शन, अनुभव प्रमाण सम्यग्ज्ञान हो गया तो फिर कोई बाधा ही नहीं है, मुक्ति होना निश्चित है; परंतु यदि निश्चय सम्यग्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति नहीं हुई और देव-गुरु-शास्त्र के श्रद्धानपूर्वक आगम का अध्ययन किया और अपने को सम्यकदृष्टि, ज्ञानी मान लिया तो बहुत बड़ा अहित हो जाता है। कर्मास्रव का रुकना ही मोक्षमार्ग है । कर्मास्रव का होना ही संसार है, इसके लिए सद्गुरू तारण स्वामी ने इस त्रिभंगीसार जी ग्रन्थ में उन भावों का वर्णन किया है जिनसे कर्मास्रव होता है और जीव को नरक - निगोदादि में जाना पड़ता है। चाहते हैं मुक्ति और मिलता है निगोद, इसलिए साधक को विशेष सावधान रहना आवश्यक है; क्योंकि आगम में कहा है कि ज्ञानी अकर्ता, अभोक्ता, अबन्ध होता है; परन्तु वह ज्ञानी कौन और कैसा होता है ? तथा हम क्या और कैसे हैं ? यह स्वयं को स्वयं में देखना और समझना अति आवश्यक है, यदि जरा सी भी संधि रही तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी बल्कि दुर्गति जाना पड़ेगा । अपने अंतर के सूक्ष्म परिणाम मोह-राग-द्वेषादि भाव देखना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान में कर्मोदय निमित्त संयोग सामने है। जैसा निमित्त, संयोग, वातावरण होता है वैसे भाव अपने आप होते हैं। यदि उस समय स्वयं का होश नहीं है तो अर्थ का अनर्थ, अनन्त कर्मों का आनव बन्ध एक समय में हो जाता है। किन निमित्त कारणों से कैसे भाव होते हैं और उन भावों में जुड़ने- बहने पर कैसे कर्मों का बन्ध होता है तथा कहाँ जाना पड़ता है ? इन सब बातों का निरूपण इस त्रिभंगीसार जी ग्रन्थ में किया गया है, जो साधक के लिए जानना नितान्त आवश्यक है, यह करणानुयोग का विषय है । द्रव्यानुयोग के साथ करणानुयोग, चरणानुयोग का ज्ञान और अपनी सम्हाल होना आवश्यक है। आगम में १०८ जीवाधिकरण-भावास्रव, समरंभ-समारंभ - आरम्भ, २०

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