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२०. पदार्थ ,व्यंजन ,स्वरूप : तीन भाव पदार्थ पद विन्दंते, विंजनं न्यान दिस्टितं । स्वरूपं सुद्ध चिद्रूपं, विंजनं पद विंदकं ॥६५॥ २१ . नन्द, आनन्द,सहजानन्द : तीन भाव आनन्द नन्द रूवेन, सहजानंद जिनात्मनं । सुद्ध स्वरूप तत्वानं, नन्त चतुस्टय संजुत्तं ॥६६।। २२. विवहार, निस्चय, सुद्ध : तीन भाव २३. दर्सनाचार ,न्यानाचार ,तपाचार : तीन भाव २४. चारित्राचार, वीर्याचार इत्यादि भेद (२४ से 38 पर्यन्त) गाथा नं.६७ से७१ तक में व्यवहार - निश्चय रूप से वर्णन किये गये हैं। जो 3EX 3 = १०८ भेद निरोध अर्थात् १०८ आम्रव के लिए संवर रूप हैं। विवहारं दर्सनं न्यानं, चारित्रं सुद्ध दिस्टितं । निस्चये सुद्ध बुद्धस्य, द्रिस्यते स्वात्म दर्सनं ॥६७।। आचरनं दर्सनाचारं, न्यानं चरनस्य वीर्जयं । तपाचार चारित्रं च, दर्सनं सुद्धात्मनं ॥६८॥ एतत् भावनां क्रित्वा, त्रिभंगी दल निरोधनं । सुद्धात्मा स्व स्वरूपेन, उक्तं च केवलं जिनं ॥६९।। जिनवाणी हृिदयं चिंते, जिन उक्तं जिनागमं । भव्यात्मा भावये नित्यं, पंथं मुक्ति श्रियं धुवं ॥७॥
अन्तिम प्रशस्ति जिन उत्तं सुद्ध तत्वार्थं, सुद्धं संमिक् दर्सनं। किंचित् मात्र उवएसंच,जिन तारण मुक्ति कारनं ॥७॥
ॐ ॐनमः सिद्ध आचार्य प्रवर श्रीमद जिन तारण तरण स्वामी विरचित श्री त्रिभंगीसारजी
(अध्यात्म प्रबोध -टीका)
मंगलाचरण महावीर की देशना, जिनवाणी अनुसार । निज अनुभव से सिद्ध कर, दरसाई गुरु तार | मुक्ति मार्ग के पथिक को, क्या होती भ्रम भूल । सूक्ष्म मार्ग है ज्ञान का, बन जाती वह शूल || संयम तप व्रत धार कर, छोड़े विषय कषाय । भाव भासना न हुई, जग में चक्कर खाय || त्रिभंगी संसार की, करती जीव का घात ॥ त्रिभंगी हो मोक्ष की, बन जाता परमात्म || ज्ञानानन्द स्वभाव का, अनुभव प्रमाण हो लक्ष । कभी लौट देखो नहीं, पर पर्याय समक्ष ॥
गाथा-१ नमस्कृतं महावीरं, भवोदय विनासनं ।
त्रिभंगी दलं प्रोक्तंच,आस्रव निरोध कारनं ।। विशेषार्थ- (नमस्कृतं महावीरं) श्री भगवान महावीर को नमस्कार करता हूँ (भवोद्भय विनासन) जिन्होंने संसार के भय का नाश कर दिया है, या नाश करने वाले हैं (त्रिभंगी दलं प्रोक्तं च ) तीन-तीन भंगों के समूह पदों को कहता हूँ (आस्रव निरोध कारनं ) कर्मों के आसव के निरोध के लिए अर्थात् जिससे कर्मों का आना बन्द हो जाये। विशेषार्थ- श्री जिन तारण स्वामी अन्तिम तीर्थंकर श्री भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार करते हैं जिन्होंने संसार के जन्म-मरण का नाश कर दिया है; अर्थात् जिन्होंने शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त कर लिया है, जहाँ से पुन: संसार में आना नहीं होता। इस प्रकार श्री