________________
श्री त्रिभंगीसार जी २८.कास्टचित्र, पाधान चित्र, लेपचित्र: तीन भाव
गाथा-३६ कास्ट पाषान दिस्टं च,लेपं दिस्टि अनुरागतः।
पाप कर्म च विधति, त्रिभंगी असुई दलं ॥ अन्वयार्थ -(कास्ट पाषान दिस्टं च ) काष्ठ और पाषाण की बनी स्त्रियों की मूर्ति देखना (लेपं दिस्टि अनुरागत:) तथा राग भाव से चित्रों को देखना (पापकर्म च विधंति) यह सब पाप कर्म काम भाव को बढ़ाने वाले हैं (त्रिभंगी असुहं दलं ) यह तीनों अशुभ भावों का समूह है।
विशेषार्थ- पूर्वगाथा में चेतन स्त्रियों के तीन भेद बताये हैं। इस गाथा में अचेतन स्त्री के तीन भेद बताये हैं। काष्ठ की स्त्री-मूर्ति, पाषाण की स्त्री-मूर्ति, चित्र में बनी स्त्री। स्त्रियों के श्रृंगारित आकार देखने से रागी पुरुषों के मन में राग भाव, काम भाव बढ़ता है जो पापकर्म की वृद्धि करता है, यह तीनों अशुभ भावों का समूह है।
जिस तरह चेतन स्त्री के शरीराश्रित जड़ बाह्य अंगों को देखकर भावों में विकार आ जाता है उसी तरह काष्ठ, पाषाण, लेप के जड़ पुद्गल आकारों को देखने से भी विकार हो सकता है; इसलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ऐसी रागभाव उत्पन्न करने में कारणभूत किसी भी काष्ठ-पाषाण की मूर्ति व चित्र को देखना नहीं चाहिए, न ही उनका निमित्त मिलाना चाहिए। अपने बैठने व शयन के स्थान में ऐसी कोई रागवर्धक स्त्री आदि की मूर्ति व चित्र नहीं रखना चाहिए। ऐसे खेल-तमाशे, सिनेमा, टी.वी. आदि नहीं देखना चाहिए जिनमें चित्रों के द्वारा कामभावों का प्रदर्शन दिखाया जाता हो क्योंकि परिणाम निमित्ताधीन होते हैं।
जब तक उच्च वीतराग दशा प्राप्त न हो तब तक आहार, विहार, निद्रा का आक्रमण है जो छटवें प्रमत्त विरत गुणस्थान तक सम्भव है, तब तक रागवर्धक मूर्ति व चित्रों के निमित्तों से बचना चाहिये।
___ अशुभ भाव उत्पन्न करने वाले चित्रों व मूर्तियों से कामभाव विकार उत्पन्न होना सम्भव है जिससे पापकर्म का बन्ध होता है; अत: आस्रव से बचने के लिए रागवर्द्धक मूर्ति व चित्रों का अवलोकन त्यागना चाहिये।
साधु अवस्था में गृह त्याग कर वन में एकान्तवास इसीलिए किया जाता है क्योंकि वहाँ राग-द्वेष वर्द्धक निमित्त नहीं हैं। बाह्य परिग्रह अंतरंग में मूर्छा उत्पन्न करने में कारणभूत हैं इसीलिए परिग्रह का त्याग, भावों में निर्ममत्व की उत्पत्ति का उपाय है। पाप भाव
६१
गाथा-३७ पैदा होने में बाह्य पदार्थ निमित्त हो जाते हैं। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह यह चार संज्ञायें बाहरी निमित्त संयोग से उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे सुगंधित भोजन को देखकर आहार का भाव, भयप्रद सिंहादि के चित्रों को अथवा घटनाओं को देखने पर भय का भाव, कामभाव उत्पादक स्त्री पुरुष व काष्ठ-पाषाण-चित्र आदि देखने से मैथुन भाव, सुन्दर मकान, धन, वैभव देखने से परिग्रह में मूर्छा भाव उत्पन्न हो जाता है; अतएव भावों में रागभाव की उत्पत्ति का कारण बाह्य पदार्थों का निमित्त-संयोग होता है, ऐसा जानकर इनसे बचना चाहिए तभी कर्मासव से बच सकते हैं।
सम्यक्दृष्टि जीव की दृष्टि स्वभाव पर होने से वह पुद्गल शरीरादि पर्याय से दृष्टि हटाकर मोक्ष चला जाता है तथा मिथ्यादृष्टि जीव पर से, पुण्य से लाभ मानता है, शरीरादि पर्याय में रत होने से पाप परिणाम कर संसार दुर्गति में चला जाता है। २९.रूप, अरूप, लावण्य : तीन भाव
गाथा-३७ रूपं अरूप लावण्यं,दिस्टितं असुह भावना ।
ते नरा दुष्य साहंति, त्रिभंगी दल मोहिनं ॥ अन्वयार्थ -(रूपं अरूप लावण्यं) सुरूप, कुरूप, लावण्य को (दिस्टितं असुह भावना) देखने से अशुभ भावना होती है (तेनरा दुष्य साहंति ) जो मानव ऐसे सुरूप, कुरूप व लावण्य, सुन्दरता को देखने में उपयोग जोड़ते हैं, वे पाप बाँधकर दु:ख सहते हैं (त्रिभंगी दल मोहिनं) यह तीनों भाव मूर्छित मोहित करने वाले हैं।
विशेषार्थ- आँखों में बहुत शक्ति होती है, उस शक्ति का दुरुपयोग करना ही पाप और सदुपयोग करना ही पुण्य है। संसारी स्त्री पुरुषों के रूप, कुरूप, सुन्दरता को रागभाव से देखना ही पाप है। सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना, पढ़ना, सत्पुरुषों का सत्संग, दर्शन करना, अहिंसा की भावना से देखकर चलना पुण्यबन्ध का कारण है। जगत के स्त्री-पुरुषों के रूप-लावण्य को कामभाव से देखने वाला किसी को तनिक भी नहीं सुहाता । वह अशुभ भावों में रत रहता, दुःख सहता हुआ नरक में जाता है।
___ मनोज्ञ व इष्ट वस्तु में राग, अनिष्ट-अमनोज्ञ वस्तुओं में द्वेषभाव होता है। सुन्दर स्त्री पुरुषों को देखकर मोहित होना कर्मास्रव पापबन्ध का कारण है। लावण्य रूप देखकर मोही जीव उन्मत्त होकर अनेक प्रकार से कुचेष्टा करता है। किसी स्त्री की सुन्दरता पर मोहित