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गाथा-३८ भाव से मिथ्यात्व में लीनता होती है (त्रिभंगी नरयं पतं) यह तीनों भाव नरक में पतन के कारण
श्री त्रिभंगीसार जी होकर उसकी प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के मायाचार रचता है और प्राप्ति न होने पर शोक करता है।
जब तक सभी इन्द्रियों का संतुलित एवं संतोषजनक संयम न हो तब तक काम संयम नहीं रखा जा सकता; क्योंकि सभी इन्द्रियाँ अन्योन्याश्रित हैं। मन से विकृत मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता क्योंकि वासनाओं एवं विकारों का मन में उदय होने पर काम संयम अत्यंत कठिन हो जाता है।
जिस मनुष्य के हृदय पर परकीय नारी के नयनवाण नहीं लगते, जो क्रोध रूपी अन्धकार से भरी रात्रि में जागता रहता है तथा जिसके गले में लोभ की रस्सी नहीं बंधी है वही सच्चा साधक महात्मा है।
दुश्चरित्र से विरत न होने वाला, मन और इन्द्रियों को संयम में न रखने वाला, चित्त की स्थिरता का अभ्यास न करने वाला एवं विक्षिप्त मन वाला केवल बुद्धिबल से आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता । कदाचार, भ्रष्टाचार, अनैतिकता को समाप्त किये बिना न तो लौकिक अभ्युदय हो सकता है और न ही पारमार्षिक कल्याण । शुद्ध चित्त योगी जिसका दर्शन करते हैं वह ज्योतिर्मय शुद्ध आत्मा ही अपना सत्स्वरूप है। जिसका निरन्तर सत्य, तपस्या, सम्यग्ज्ञान एवं ब्रह्मचर्य बारा लाभ होता है।
क्रिया तो वर्ण और भूमिका के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। जो पापपना, तीक्ष्णपना, मलिनता, पतन करने की बात है, वह कामना के कारण होती है । घोर तपस्या या गहरी पूजा पाठ अथवा जप-ध्यान करने वाले किन्तु चारित्रहीन लोगों की क्या गति होती है ? इसके अनेक दृष्टांत धर्मग्रंथों में मिलते हैं। रूप, अरूप, लावण्य यह तीनों भाव, कामभाव से सम्बन्धित होने से घोर पतन के कारण हैं, इनसे पापासव होता है। 30.माया, मोह, ममत्व : तीन भाव
गाथा-३८ माया मोह ममत्तस्य,प्रमानं असुह चिंतनं ।
ममतं मिथ्या संजुत्तं, त्रिभंगी नरयं पतं ॥ अन्वयार्थ-(माया मोह ममत्तस्य) संसार की माया में मोह-ममत्व करने से (प्रमानं असुह चिंतनं ) बुद्धिपूर्वक अशुभ चिंतन करने से चिंता और भय होता है (ममतं मिथ्या संजुत्तं) ममत्व
विशेषार्थ- संसार की क्षणभंगुर स्वप्न सम अवस्थाओं को माया कहा गया है। माया के तीन रूप होते हैं-कंचन, कामिनी, कीर्ति-इनमें मोह करना, अपना मानना, स्नेह करना आदि से अशुभ चिंतन होता है, जिससे भय और चिन्ता पैदा होती है। ममत्व भाव मिथ्यात्व में लीन करता है, जिससे जीव नरक का पात्र बनता है।
यह जीवन तो बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है। कुटुम्यादि का संयोग स्वप्न के समान है। जगत के प्राणियों के साथ स्नेह सन्ध्या की लालिमा के समान है और तृण पर पड़ी दुई बूंद के समान शरीर का क्षणभर में पतन हो जाता है। इन्द्रियों के भोग इन्द्रधनुष के समान देखते-देखते नष्ट हो जाते हैं, मेघों के विघटन के समान लक्ष्मी विला जाती है। पानी में खींची हुई रेखा के समान जवानी मिट जाती है अर्थात् जगत की सभी पर्यायें क्षणभंगुर नाशवान हैं।
इस माया में मोह-ममत्व होने से अशुभ चिन्तन और मिथ्यात्व में लीनता होती है जिससे जीव पाँचों पापों में फँस जाता है, रौद्रध्यानी हो जाता है । इष्ट वस्तु के वियोग तथा अनिष्ट संयोग में दु:खी मन होकर आर्तध्यान कर लेता है जिससे नरक आयु बाँधकर नरकगति में चला जाता है।
इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव ही घोर पाप करते हैं। स्त्री के पीछे बड़े-बड़े युद्ध छिड़ जाते हैं। धन के पीछे अनेक प्रपंच रचाकर दूसरों को ठग लेते हैं। जीव इस सांसारिक माया-मोह में फँसकर अपना आत्मघात करता है।
कंचन, कामिनी, कीर्ति, माया का घेरा है। पुत्र, परिवार मोह का घेरा है। धन, वैभव, विषयासक्ति ममत्व का फैलाव है। जब तक अपनत्वपना, कर्तापना, अहंकार और चाह है तब तक तनाव, अशांति नहीं मिट सकती। आवश्यकता से आकुलता होती है, समस्या से विकल्प होते हैं, जिम्मेदारी से चिंता होती है।
एक तरफ माया-कंचन, कामिनी, कीर्ति का चक्कर है, इन्द्रिय विषय भोग मन की चाह है। इनमें ममत्व भाव होने से आकुलता-व्याकुलता, भय, चिन्ता, दु:ख है, जन्म-मरण संसार है। दूसरी तरफ मुक्ति-आत्मानुभूति, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र से साधु पद और अरिहन्त सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । इस ओर का रुचि पूर्वक पुरुषार्थ करने