Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 59
________________ श्री त्रिभंगीसार जी में उसकी भी निवृत्ति हो जाती है। अबती, व्रत ग्रहण करके और व्रती ज्ञानाभ्यास करके, ज्ञानतत्पर परमात्म बुद्धि से सम्पन्न होकर स्वयं परमात्मा हो जाता है। ज्ञेय और ज्ञाता में अथवा ज्ञेय से युक्त ज्ञाता में सर्वज्ञ भगवान के बारा जैसा कहा गया है और जैसा उनका यथार्थ स्वरूप है, तदनुसार प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है और अनुभूति होना सम्यक्झान है। जो सांसारिक सुख से विरक्त होता है वही चारित्र में प्रयत्नशील होता है। जिसका चित्त सांसारिक सुखों में आसक्त है वह चारित्र क्यों धारण करेगा ? चारित्र का आशय है स्वरूप में आचरण । इन्द्रिय जन्य सुख से आसक्ति हटे बिना स्वरूप में रुचि ही नहीं होती, प्रवृत्ति तो दूर की बात है; अत: जिनवाणी के कथनानुसार निश्चय-व्यवहार का यथार्थ स्वरूप समझकर सम्यक् आचरण करना ही मुक्ति का मार्ग है। बाह्य विषयों का त्याग, द्रव्य त्याग है औरअन्तर्वर्ती विषय सम्बन्धी विकल्पों का त्याग,भाव त्याग है। दोनों प्रकार से त्याग करने वाले विश्व पूज्य होते हैं। इस प्रकार मन-वचन-काय तीनों योग की प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन, हलन- चलन होना कर्मास्रव है। जिनका १०८ प्रकार के भावों द्वारा आस्रव भाव का निरूपण किया है। इनसे बचने के लिए साधक को सावधान रहते हुए अपना अन्तर शोधन करना चाहिए; तब ही वह कर्मास्रव से बच सकता है। मोह रूप संकल्प तथा राग-द्वेष रूप विकल्प यह सब जीव के अज्ञान भाव हैं। यह जीव अपनी इस भूल के कारण ही कर्म बन्ध करता है, यदि वह अपने स्वरूप का सही बोध कर ले और किसी भी पदार्थ में राग-देष की भावना न करे तो, अज्ञान चेतना रहित, ज्ञान चेतना सहित वह ज्ञानी है। उस समय उसकी यह परिणति ज्ञानमय परिणति है, इस ज्ञानमय परिणति के होने पर जीव दोनों प्रकार के आम्रव अभाव कर निराम्रवदशा को प्राप्त करता है। कर्मास्रव का निरोध होना ही मोक्षमार्ग है। य अध्याय त्रिभंगी आसव दल निरोधन भाव प्रतिज्ञा गाथा-४५ त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं,भव्यात्मा हिदयं चिंतनं । तेनाऽहं निरोधनं कृत्वा,जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं ॥ अन्ववार्थ-(त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं ) तीन-तीन भावों के समूह जो कर्मासव के कारण हैं उनको कहा है (भव्यात्मा ह्रिदयं चिंतनं ) उनको समझ कर भव्य जीव हृदय में विचार करते हैं (तेनाऽहं निरोधनं कृत्वा) मैं उन आसव भावों का निरोध करूँगा अथवा जो उन भावों का निरोध करते हैं (जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं) जिनेन्द्र कहते हैं कि वे शुद्ध दृष्टि हैं। विशेषार्थ- पूर्व कथित छत्तीस त्रिभंगी दलों में कर्मों के आस्रव व बन्ध में हेतुभूत भावों को बताया गया है। उनको समझकर भव्य जीव हृदय में विचार करते हैं कि- जब तक कर्मासव होगा, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती। जैसे नाव में पानी आने की संधियाँ हों तो उनको डॉट लगाकर बन्द करते हैं, तभी नदी पार कर सकते हैं। इसी प्रकार इन आसव भावों का निरोध करने पर ही मुक्ति होती है। जिनेन्द्र द्वारा बताई गई निज शुद्धात्मा की अनुभूति में जो डूबते हैं वही शुद्ध दृष्टि इन आसव भावों का निरोध करते हैं। वन में रहने वाले निग्रंथ वीतरागी साधु आत्मा के अमृत कुण्ड में मग्न होकर छटवें-सातवें गुणस्थान में झूलते हैं, तब ही कर्मास्रव का निरोध होता है। ज्ञानी को यथार्थ दृष्टि प्रगट हुई है। वह द्रव्य स्वभाव के आलम्बन द्वारा अन्तर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है; परंतु जब तक अपूर्ण दशा है, पुरुषार्थ मन्द है, पूर्णरूप से शुद्ध स्वरूप में स्थिर नहीं है तब तक वह शुभाशुभ परिणामों में संयुक्त होता है। ज्ञानी को हर समय यही भावना वर्तती है कि इसी क्षण पूर्ण वीतरागता प्रगट हो तो मुझे यह शुभाशुभ परिणाम भी नहीं चाहिए। ___ आत्म प्रदेशों का निष्कंप होना ही कासव का निरोध है। जो भव्य जीव इतना प्रवल पुरुषार्थ करते हैं; त्रियोग की साधना करते हैं वे ही शुद्ध दृष्टि मुक्तिमार्ग के * इति प्रथमोध्यायः *

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