Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ ११० श्री त्रिभंगीसार जी रूपस्थ ध्यान है (रूपातीतं विक्त रूपयं) रूपी पदार्थ पुद्गल से भिन्न " मैं अरूपी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ" ऐसा ध्यान रूपातीत ध्यान है (स्व स्वरूपं च आराध्य) ऐसे अपने आत्म स्वरूप की आराधना करना (धर्म चक्रं न्यान रूपयं) यही ज्ञान रूपी धर्म चक्र है जिससे कर्मों का विध्वंस होता है। (धर्मध्यानं च संजुक्तं) ऐसे धर्म ध्यान में लीन होने से (औकास दान समर्थयं) आत्मा, आत्मा को आत्मा का दान देने में समर्थ होता है अर्थात् आत्म शक्ति का जागरण होता है (अन्या पाय विचय धर्म) आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय, संस्थान विचय यह धर्मध्यान के चार भेद होते हैं (सुक्ल ध्यानं स्वात्म दर्सन) स्वात्मा का दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति शुक्ल ध्यान है। विशेषार्थ-आत्मध्यान की अग्नि से ही कर्मों को भस्म किया जाता है। यहाँ धर्म ध्यान के अन्तर्गत पदस्थ ,पिण्डस्थ,रूपस्थ, रूपातीत ध्यान तथा आज्ञा विचय, अपाय विचय , विपाक विचय, संस्थान विचय द्वारा स्वस्वरूप का चिन्तन करने की प्रेरणा दी गई है, इससे आत्मशक्ति जाग्रत होती है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है, कर्मासव का निरोध होता है तथा शुक्ल ध्यान से कर्म क्षय होकर केवलज्ञान परमात्म पद की प्राप्ति होती है । धर्मध्यान सविकल्प दशा है, इसमें स्वरूप का स्मरण ध्यान और आंशिक स्थिरता होती है । शुक्ल ध्यान निर्विकल्प दशा है, इसमें स्वात्म दर्शन और स्वरूप स्थिरता होती है जिससे केवलज्ञान प्रगट होता है। धर्मध्यान के चार भेद हैं - १ .आता विचक आगम की प्रमाणता से अर्थ का विचार करना । जिनेन्द्र भगवान की आज्ञानुसार जीवादि तत्वों को जानकर, पर से भिन्न आत्मा के स्वरूप का विचार करना । साधक दशा का विचार-" मैं वर्तमान आत्मशुद्धि की जिस भूमिका में वर्तता हूँ", उसी का स्वसन्मुखता पूर्वक विचार करना आज्ञाविचय धर्म ध्यान है। २. अपाय विषय-संसारी जीवों के दु:ख और उससे बचने के उपाय का विचार करना तथा अपनी कमजोरी, कर्मबन्ध के कारणों का विचार करना । अभी अपने में कितने अंश में सरागता ,कषाय कण विद्यमान हैं ? मेरी कमजोरी ही विघ्न रूप है, रागादि ही दु:ख के कारण हैं, ऐसे भावकर्म रूप, बाधक भावों का विचार करना अपायविचय धर्म ध्यान है। ३. विपाक विषय-अपनी व दूसरे प्राणियों की अच्छी या बुरी अवस्थाओं को देखकर १११ गाथा-५८.५९.६० कर्मों के उदय को विचारना । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के कारण जो कर्मों के फल का अनुभव होता है, उसका चिन्तवन करना । द्रव्यकर्म के विपाक का विचार तथा अपनी भूल रूप मलिन भावों में कर्मों का निमित्त मात्र रूप सम्बन्ध जानकर स्वसन्मुखता के बल को संभालना, और जड़ कर्म किसी को लाभ-हानि करने वाला नहीं है, ऐसा विचार विपाक विचय धर्म ध्यान है। १. संस्थान विषय-तीन लोक का आकार विचारना । जीवों के स्थान व सिद्ध क्षेत्र को विचारना। मेरे शुद्धात्म द्रव्य का प्रगट निरावरण संस्थान आकार पुरूषार्थ से कैसे प्रगट हो? शुद्धोपयोग की पूर्णता सहित, स्वभाव व्यंजन पर्याय का, स्वयं स्थिर शुद्ध आकार कब प्रगट होगा ऐसा विचार करना तथा स्वसन्मुखता के बल से जितनी आत्म परिणामों की शुद्धता हो,उसे संस्थान विचय धर्म ध्यान कहते हैं। अपने शुद्ध स्वभाव में जो एकाग्रता है वही निश्चय धर्म ध्यान है। जिसमें क्रियाकाण्ड के सर्व आडम्बरों का त्याग है। ऐसी अन्तरंग क्रिया के आधार रूप जो आत्मा है उसे मर्यादा रहित, तीनों काल के कर्मों की उपाधि रहित निज स्वरूप से जानता है। वह ज्ञान की विशेष परिणति या जिसमें आत्मा स्वाश्रय से स्थिर होता है सो निश्चय धर्म ध्यान है और यही संवर-निर्जरा का कारण है। इसमें चार प्रकार का ध्यान होता है - १. पदस्थ ध्यान-व्यवहार से चित्त की एकाग्रता, मन को शान्त करने के लिये एक कमल हृदय में विचारें। उसकी आठ पंखुड़ियों पर क्रम से- णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं,णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नम:, सम्यग्चारित्राय नम: ऐसे आठ पद विचार कर ध्यावें। चन्द्रमा के समान चमकते हुए ॐ को नासिका के अग्रभाग, मस्तक या हृदय में स्थापित कर ध्यावें, यह सब पदस्थ ध्यान है। निश्चय से अपना शाश्वत सिद्ध पद जो शुद्ध स्वभाव है उसका ध्यान करना, यह पदस्थध्यान है इससे शुद्ध तत्व का प्रकाश होता है। २. पिण्डस्थध्यान-शरीर में विराजित अपने शुद्धात्मा का ध्यान करना कि मैं मात्र ज्ञान पिण्ड शुद्ध चैतन्य शुद्धात्मा हूँ, यह पिण्डस्थ ध्यान है । व्यवहार में पृथ्वी धारणा, अग्नि धारणा, वायु धारणा ,जल धारणा, तत्वरूपवती धारणा के माध्यम से स्वरूप का चिन्तन करना कि- मेरा आत्मा पूर्ण शुद्ध है, सर्व पुद्गल से रहित है, स्फटिक मणितुल्य है, यही सिद्ध

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95