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श्री त्रिभंगीसार जी
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भजन-१३
हे साधक अब प्रमाद को छोड़ो। अपनी सुरत रखो निशिवासर, मोह राग को तोड़ो॥ इन्द्रिय विषय व्यर्थ बोलना , इनसे मन को मोड़ो। चारों कषायें ही दुःख दाता , समय बचो है थोड़ो...हे... निद्रा को अब दूर भगाओ , मत सोओ बेचकर घोड़ो। चाह लगाव भी खत्म करो अब ,उठकर जल्दी दौड़ो...हे... देखो अपनी सत्ता शक्ति , सब प्रपंच को छोड़ो।। निज पुरुषार्थ जगाओ जल्दी , अपनी सेना जोड़ो...हे... ज्ञानानंद स्वभाव तुम्हारा , काये को खा रहे कोड़ो। निजानंद रत रहो निरंतर , मुक्ति श्री वर जोड़ो...हे...
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आध्यात्मिक भजन भजन-१५ आने है आने है, जा मौत तो इक दिन आने है। जाने है जाने है,सब छोड़ के इक दिन जाने है॥ बीतो बचपन गई जवानी , अब तो बुढ़ापो आ गओ। हाथ पांव सब ढीले पड़ गये , आँखों में धुंध छा गओ॥ खाने है खाने है , का अब भी धक्का खाने है...आने... धन वैभव और कुटुम्ब कबीला , यहीं छूट जायेगा। धर्म कर्म ही साथ जायेगा , कुछ न काम में आयेगा । पाने है पाने है , अब मुक्ति श्री को पाने है...आने... सब संसार सामने दिख रहो , जावे वारे जा रहे । जेको जैसो कर्म उदय है, वैसे धक्का खा रहे ॥ जगाने है जगाने है ,अब निज पुरुषार्थ जगाने है...आने... धर्म की महिमा सामने दिख रही,अब का उल्टे मरने है। संयम तप की करो साधना , अब तो महाव्रत धरने है । भाने है भाने है , अब निज शुद्धातम भाने है...आने... मोह राग में अब मत भटको , पर की तरफ न देखो। ज्ञानानंद में लीन रहो नित , अपना कुछ मत लेखो। ध्याने है ध्याने है , अब सत्य स्वरूप ही ध्याने है...आने...
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भजन-१४ मेरे गुरू तार , आओ फाग अब खेलें॥ समकित की पिचकारी लेकर , संयम रंग गलायें। तप से सारे कर्म खिपायें, ध्यान की आग लगायें.. सिद्ध स्वरूप की सुरत लगायें, शुद्धातम को ध्यायें। मुक्ति श्री संग रास रचायें , ज्ञानानंद बरसायें... पहले तो कुछ पता नहीं था , जो कुछ तुम कहते थे। मोह अज्ञान मिथ्यात्व दशा में , हम उल्टे बहते थे... तेरी कृपा से गुरुवर ऐसा , सब शुभ योग है पाया। ब्रह्मानंद का भान हो गया , निजानंद प्रगटाया... सहजानंद में अब नित रहते , जय जयकार मचाते। फाग फूलना के मेले में , अब हम तुम्हें बुलाते...
भेदज्ञान दारा स्व-पर का यथार्थ निर्णय करना; क्योंकि उपादेय की तरह हेय को भी जानना आवश्यक है,
हेय को जानने से उपादेय में दृढ़ आस्था होती है।