Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 86
________________ श्री त्रिभंगीसार जी १३४ भजन-३ तुम संसारी नहीं,न तन के धारी हो। स्वयं शुद्ध चैतन्य, मोक्ष के गामी हो। १. तुम निज स्वरूप को भूले , पर को अपना है माना। राग द्वेषादि भावों को, तुमने अपना है जाना । तुम नहीं हो नर या नार , रत्नत्रय धारी हो...स्वयं... २. निज सत्ता शक्ति देखो , तुम अनन्त चतुष्टय धारी। तुम सिद्धस्वरूप शुद्धातम, हो शिवपुर के अधिकारी ।। अब करो स्वयं का भान , परम सुखकारी हो...स्वयं... ३. ध्रुवतत्व का ध्यान लगाओ,निजस्वरूप में रम जाओ। अपने में लीन रहो तुम , नित ज्ञानानंद कहाओ ॥ तुम स्वयं सिद्ध भगवान , पूर्ण अविकारी हो...स्वयं... १३५ आध्यात्मिक भजन भजन-५ चलो चलोरे अपने धुव धाम, फंसे हो कहां त्रिभंगी॥ १. पाप विषय कषाय त्रिभंगी, कर रहे हालत खस्ता। इनकी मार में मरे जा रहे , भूल रहे सब रस्ता..... २. कर्म बंध इनसे ही होते , देते दुःख अतिभारी। मोह राग के चक्कर में ही , भूल रहे सुध सारी..... निज सत्ता शक्ति को देखो , तुम हो सिद्ध स्वरूपी। एक अखंड अविनाशी चेतन,ममल हो अरस अरूपी..... नंद आनंदह चिदानंद मय , ज्ञानानंद स्वभावी। अप्पा शुद्धप्पा परमप्पा , शुद्धह शुद्ध स्वभावी..... व्रत संयम तप के ही द्वारा , यह भंगी भगते हैं। कर पुरुषार्थ ध्यान लगाओ,सभी कर्म गलते हैं.... ज्ञानानंद चलो अब जल्दी, साधु पद को धारो। निजानंद मय रहो निरंतर , मोह राग को मारो..... ७. देखो सब शुभ योग मिले हैं, काये बने अज्ञानी। तारण तरण जगा रहे तुमको, कह रही माँ जिनवाणी.. भजन-४ हे भवियन ध्रुव तत्व ही देखो। ध्रुव तत्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, सिद्ध स्वरूप को पेखो। १. एक अखंड ममल अविनाशी , रत्नत्रय मयी देखो। सत्ता एक शून्य विन्द है , पर में अब मत बहको...हे... २. अनंत चतुष्टय पंच ज्ञान मयी , सिद्धालय में बैठो। मोक्षमहल और मुक्ति श्री का,अतीन्द्रिय आनंद लेलो...हे... ३. जो सिद्धालय सो देहालय , यामें भेद न लेखो। दांव लगा है मोका मिला है , निजानंद मय चहको...हे... ४. ब्रह्मानंद में शयन कर रहा , परम शांत रस पेखो। ज्ञानानंद स्वभाव तुम्हारा , अपना कुछ मत लेखो...हे... ..................................... निश्चय चारित्र स्वात्मानुभव ही है, वास्तव में आप : : ही साधन है, आप ही साध्य है, आप से ही आत्मा आप ही पवित्र : होता है। यह आत्मा,आत्मा में ही, आत्मा के द्वारा स्वयमेव अनुभव : किया जाता है। जो कोई भव्य जीव भयानक संसार रूपी महासमुद्र : : से निकलना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि कर्म रूपी ईंधन को जलाने : : के लिये अपने शुद्धात्मा का ध्यान करें। . . . . . . . . . .

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