Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 80
________________ १२२ १२३ श्री त्रिभंगीसार जी वीतरागता होती है उसी से कर्मों का क्षय होता है तथा वह आनन्द, जितनी-जितनी ज्ञान की, व वीतरागता की वृद्धि होती है, उतना-उतना बढ़ता जाता है। अरिहन्त सिद्ध परमात्मा को परमानन्द रूप हो जाता है फिर वह कभी मिटता नहीं है, सदा बना रहता है । मुक्ति का मार्ग नन्द, आनन्द, सहजानन्दमयी है, इसी से कर्मास्रव का निरोध होता है। जब योगी साधक योग बल से आत्मा के स्वरूप में तन्मय हो जाता है व सर्व व्यवहार के विकल्पों से रहित हो जाता है ,तब अद्भुत अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आता है। यही आनन्द निरन्तर कर्मों के ईंधन को प्रचुरता से जलाता है। उस समय योगी को बाहर कोई पर-पर्याय का लक्ष्य नहीं रहता है। जो सर्व विकल्पों को त्यागकर परम समाधि का लाभ करते हैं वे जिस आनन्द को भोगते हैं उसी को मोक्ष सुख कहते हैं। भेद विज्ञान का बारम्बार अभ्यास करना यही मोक्षमार्ग है, उसी से शुद्धात्म तत्व की प्राप्ति होती है, पूर्ण आस्रव भाव रूकता है तथा उसी जीव को मोक्ष होता गाथा-६७.६८ स्वात्म दर्सन)स्वात्मदर्शन ही दिखलाई पड़ता है। (आचरनं दर्सनाचारं) आचरण में दर्शनाचार (न्यानं चरनस्य वीर्जयं ) ज्ञानाचार, चारित्राचार ,वीर्याचार (तपाचार चारित्रं च ) तपाचार रूप पंचाचार चारित्र दिखाई देता है (दर्सनं सुद्धात्मन) निश्चय से एक शुद्धात्मा का दर्शन, शुद्धात्मानुभूति ही होती है। विशेषार्थ-यहाँ सिद्धान्त का सार साधक की साधना का लक्ष्य बिन्दु एक ही है कि मोक्ष का मार्ग केवल स्वात्मानुभूति या स्वात्मदर्शन है जो अनुभवगम्य है। जहाँ नय, निक्षेप, प्रमाण का कोई विचार नहीं है, वह निश्चय-व्यवहार दोनों से परे है इसलिए वही ध्रुव है, शुद्ध है, सिद्ध है; उसकी साक्षात् प्राप्ति के लिए निश्चय नय से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का मनन-स्मरण ध्यान है । इस निश्चय का साधन भेदरूप व्यवहार है। व्यवहार में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता मोक्ष का मार्ग है, निश्चय से एक अपना आत्मा ही है । रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर और किसी द्रव्य में नहीं होते, इसलिए रत्नत्रयमयी आत्मा ही मोक्ष का कारण है । व्यवहार नय से ही साधु के लिए पाँच प्रकार का आचार मोक्ष का साधन बताया है, क्योंकि वह स्वात्मानुभव की स्थिति में साधक है, साध्य तो निज शुद्धात्मा ही है। १. दर्शनाचार-सम्यक्दर्शन का आचरण यह है कि पच्चीस मलरहित अष्ट अंग सहित तत्वों की श्रद्धा को दृढ रखना व निज शुद्धात्मानुभूति करना। २. ज्ञानाचार-सम्यग्ज्ञान की शुद्धिपूर्वक,पंच ज्ञान की प्रगटता होना। ३. चारित्राचार-साधु के चारित्र को उत्तम प्रकार से पालन करना , जिसके तेरह भेद-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीनगुप्ति सहित अपने आत्मस्वरूप में रमण करना, ज्ञान, ध्यान, तप में रत रहना। ४. तपाचार-तप को भले प्रकार पालन करना, इसके बारह भेद हैं -छह बाह्य ,छह आभ्यंतर । इच्छाओं का निरोध कर, स्वरूप में लीन रहना ही तप है। ५.वीर्याचार-आत्म पुरुषार्थ को प्रगट कर ज्ञानानन्द स्वभाव में लीन रहना । निरन्तर उमंग, उत्साहपूर्वक शुद्धात्मानुभूति में रत रहना। इस प्रकार निश्चय-व्यवहार के समन्वयपूर्वक शुद्धात्मानुभूति की साधना करना, इससे कर्मासव का निरोध होता है, पूर्व कर्म बन्धोदय क्षय होते हैं, मुक्ति की प्राप्ति होती है ।निश्चय चारित्र स्वात्मानुभव ही है। वास्तव में आप ही साधन है, आप ही साध्य है, २२. विवहार, निस्चय, सुद्ध: तीन भाव २३. दर्सनाचार,न्यानाचार,तपाचार : तीन भाव २४. चारित्राचार, वीर्याचार इत्यादि भेद (२४ से 38 पर्यन्त) गाथा नं. ६७ से ७१ तक में व्यवहार -निश्चय रूप से वर्णन किये गये हैं। जो 36 x 3 = १०८ भेद निरोध अर्थात् १०८ आम्रव के लिए संवर रूप हैं। गाथा-६७, ६८ विवहारं दर्सनं न्यानं, चारित्रं सुख दिस्टितं । निस्चये सुद्ध बुद्धस्य, द्रिस्यते स्वात्म दर्सनं ॥ आचरनं दर्सनाचारं, न्यान' चरनस्य वीर्जय। तपाचार चारित्रं च, दर्सनं सुद्धात्मनं ॥ अन्नपार्च-(विवहारं दर्सनं न्यानं) व्यवहार से सम्यग्दर्शन, ज्ञान (चारित्रं सुद्ध दिस्टितं) चारित्र, शुद्ध दृष्टि को होते हैं (निस्चये सुद्ध बुद्धस्य) निश्चय से शुद्ध दृष्टि ज्ञानी को (दिस्यते

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