Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 60
________________ ८३ गाथा-४६ जिसे कर्मासव बन्ध से छूटना है उसे आत्महित में साधक, सच्चे देव, गुरु, शास्त्र की महिमा आती है। कोई भी कार्य करते हुए उसे निरंतर शुद्ध स्वभाव प्राप्त करने का भाव बना रहता है। श्री त्रिभंगीसार जी पथिक हैं। वीतरागता होने से उन्हें ज्ञान की अगाध अद्भुत शक्ति प्रगट होती है; और आसव का निरोध होता है। प्रश्न-जब आत्म प्रदेशों के निष्कंप होने, अपने ममल स्वभाव में रहने से कर्मासव का निरोध होता है, तो यह आसव निरोध भाव क्यों कहे जाते हैं। समाधान-ज्ञानी की साधक दशा में सारा खेल भावों का ही है। यहाँ अभी आसव के साथ कर्मबन्ध भी होता है, इसलिए उनसे बचना आवश्यक है। साधक दशा में साधक के योग्य अनेक परिणाम वर्तते हैं। मुनि तथा सम्यक्हृष्टि श्रावक को जो भाव आते हैं वे ज्ञातृत्व परिणति से विरुद्ध स्वभाव वाले होने के कारण उनका आकुलता रूप से दु:ख रूप से वेदन होता है, हेयरूप ज्ञात होते हैं तथापि उस भूमिका में आये बिना नहीं रहते। इन भावों की धारा को बदलना ही वर्तमान में साधक का पुरुषार्थ है। इससे जो कर्मास्रव बन्ध होता है उससे छुटकारा हो जाता है। तब ही आगे बढ़ने का मार्ग बनता है। जैसे आगम में २ मिथ्यात्व, १२ अविरति, १५ प्रमाद, २५ कषाय और ३ योग; यह कर्म आस्रव और बन्ध के कारण कहे हैं, वैसे ही-३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषह जय और ५ चारित्र यह संवर के कारण कहे हैं। - इसी अभिप्राय से १०८ भाव से आस्रव रूप परिणामों का वर्णन किया और १०८ भाव से आस्रव के निरोध रूप संवर भाव कहे जाते हैं। १.देव, गुरु, धर्म (साख): वीन भाव गाथा-४६ देव देवाधिदेवं च,गुरु ग्रन्थस्य मुक्तयं । धर्म अहिंसा उत्पाधं,त्रिभंगी दल निरोधनं ॥ अन्वयार्थ-दिव देवाधि देवं च ) देवों के अधिपति परम देव परमात्मा तो सच्चे देव हैं (गुरु ग्रन्थस्य मुक्तयं ) समस्त पाप परिग्रह के त्यागी, सर्वबन्धनों से मुक्त निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु सच्चे गुरु हैं (धर्म अहिंसा उत्पाद्यं) धर्म अहिंसा मयी है और इसका प्रतिपादन करने वाले शास्त्र हैं (त्रिभंगी दल निरोधनं ) ऐसे सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे धर्म (शास्त्र) की आराधना, भक्ति, कर्मबन्ध को रोकने वाली है। विशेषार्थ- जिसे मोक्ष की भावना जागी है, जो अपना आत्मकल्याण करना चाहता है, पुरूषार्थ की निर्बलता के कारण अस्थिरता रूप विभाव परिणति में शुभाशुभ परिणाम होते हैं। इस विभाव परिणति को रोकने का उपाय सच्चे देव, गुरू, धर्म, निज शुद्धात्म स्वरूप का चिंतन, मनन, शास्त्र स्वाध्याय करना है। जिससे यह शुभाशुभ भावों की धारा रुक जाती है। यह तीनों भाव आस्रव का निरोध करने वाले हैं। आत्मा की मुख्यतापूर्वक सच्चे देव, गुरू, शास्त्र का आलम्बन साधक को आता है। "मैं द्रव्य से परिपूर्ण महाप्रभु हूँ , भगवान हूँ, कृत-कृत्य हूँ"- ऐसा मानते हुए भी - “पर्याय में तो अभी पामरता है" ऐसा ज्ञानी जानते हैं। सच्चे देव - देवाधिपति इन्द्रों द्वारा वन्दनीय, परम देव - परमात्मा जो अरिहन्त और सिद्ध पद को प्राप्त हो गये हैं। जिनके सारे कर्मबन्धन और जन्म-मरण का चक्र छूट गया है, जो वीतरागी , सर्वज्ञ, हितोपदेशी, अपने आनंद परमानंद पद में विराजमान हैं। जिनके घातिया कर्म क्षय हो गये हैं, अनन्त चतुष्टय प्रगट हो गये हैं। जो नौ क्षायिक लब्धि के धनी केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा हैं , ऐसा ही मेरे आत्मा का शुद्ध स्वभाव है। मैं भी द्रव्य स्वभाव से आत्मा-शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। ऐसा परमात्मा और आत्मस्वरूप का विचार करना, यही सच्चे देव की आराधना है, इससे आसवभाव का निरोध होता है। जिस समय अरिहन्त परमात्मा आयु के अंत में शेष चार अघातिया कर्मों का क्षयकर पूर्ण मुक्त , शरीर रहित परमशुद्ध हो जाते हैं, उस समय उन्हें सिद्ध कहते हैं। ऐसा ही “सिद्ध समान सदा पद मेरो" अर्थात् मैं भी सिद्ध के समान शुद्ध अशरीरी, अविकारी, शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। इस तरह सिद्ध स्वरूप का चिन्तन करते हुए अपने स्वरूप का विचार करना- यही भाव आस्रव का निरोध करने वाले हैं। सच्चे गुरू- जो सम्पूर्ण बन्धनों से रहित, निर्ग्रन्थ, वीतरागी, महाव्रती साधु हैं। जो अपने आत्मज्ञान-आत्मध्यान में लीन रहते हैं। जो अंतरंग-बहिरंग परिग्रह के त्यागी, जितेन्द्रिय, सरल स्वभाव के धारी होते हैं। जिनके सत्संग और उपदेश से संसारी जीव का अज्ञान भाव दूर होता है। जो स्वयं मोक्षमार्ग के पथिक हैं तथा मोक्षमार्ग बताते हैं ऐसे सद्गुरू

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