Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 62
________________ ७ श्री त्रिभंगीसार जी दोष हैं। चारित्र के प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं का पालन न करना दोष है। जीव के परिणाम निश्चय नय के श्रद्धान से विमुख होकर शरीरादि पर द्रव्यों के साथ एकत्व श्रद्धान रूप होकर जो प्रवृत्ति करते हैं, उसी का नाम संसार है। अज्ञानी, चैतन्य स्वरूप आत्मा कहने से समझता है कि यह कोई अलग परमेश्वर है। निश्चय से तो आत्मा ही चैतन्य स्वरूप परमात्मा है। लोग शुद्ध नय को नहीं जानते क्योंकि शुद्ध नय का विषय अभेद एक रूप वस्तु है किन्तु वे व्यवहार के द्वारा ही परमार्थ को समझते हैं; इसलिए व्यवहार के द्वारा परमार्थ का लक्ष्य बनाना, साधक की साधना की सिद्धी है। इस प्रकार व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अपने शुद्धात्मा के गुणों को जानने से आस्रव भाव का निरोध होता है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मयी अपना आत्मस्वरूप है यही शरणभूत है इसके आश्रय से ही कर्म बंध से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । स्वाश्रय ही कर्मासव से बचने का उपाय है। 3.निश्चय सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र: तीन भाव गाथा-४८ संमिक् दर्सनं न्यानं, चारित्रं सुद्धात्मनं । स्व स्वरूपंच आराध्य, त्रिभंगी समय पण्डनं । अन्वयार्थ- (संमिक् दर्सनं न्यान) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान (चारित्रं सुद्धात्मन) सम्यग्चारित्र शुद्धात्मा ही है (स्व स्वरूपं च आराध्यं) ऐसे अपने स्वरूप की आराधना करने से (त्रिभंगी समय षण्डन) निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही आस्रव भावों का खण्डन करने वाला है। विशेषार्थ. निश्चय रत्नत्रय आत्मानुभव रूप है। यही यथार्थ में कर्मास्रव को दूर करने वाला है। सम्यग्दर्शन स्वरूप परमसुख आत्मा का स्वभाव है. सम्यग्ज्ञान स्वरूप परम शांति आत्मा का स्वभाव है, सम्यक्चारित्र स्वरूप परम आनंद आत्मा का स्वभाव है। तीनों ही अखण्ड आत्मा में इस तरह व्यापक स्वभाव है, जैसे स्वर्ण में पीतपना, भारीपना और चिकनापना व्यापक है या अग्नि में दाहकपना, पाचकपना, प्रकाशकपना व्यापक है। __ आत्मा का आत्मा रूप, जैसा का तैसा अनुभव प्रमाण श्रद्धान सम्यक्त्व है । ऐसा ही सन्देह रहित ज्ञान सम्यक्ज्ञान है । इसी ज्ञान-श्रद्धान में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है। गाथा-४८ आत्मा स्वभाव से, द्रव्य दृष्टि से सदाकाल एक स्वभाव है, अमूर्तिक है, ज्ञान दर्शन मय है, वीतराग, परमानंदमय है, सिद्ध भगवान के समान है, ऐसा श्रद्धान-ज्ञान व उसी भाव में लवलीन होना निश्चय रत्नत्रय है, यह आत्मा का स्वरूप स्व समय रूप है। मन-वचन-काय के अगोचर एक अवक्तव्य स्वसंवेदनज्ञान है, अतीन्द्रिय आनंद है, यही आत्मध्यान की अग्नि है, इसी से संवर होता है, निर्जरा होती है, यही मोक्षमार्ग है। ज्ञानी सदैव ऐसा ही स्वानुभव आराधन करते हैं। त्रिकाली ध्रुव आत्म द्रव्य को पकड़ने पर ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान होता है, उसे पकड़ने पर ही चारित्र होता है, उसे पकड़ने पर ही केवलज्ञान होता है। जो जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित हो रहा है उसे निश्चय से स्वसमय तथा जो जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो। ज्ञानी के दर्शन-ज्ञान-चारित्र यह तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं। निश्चय से दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है,चारित्र भी नहीं है; शानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। जो वीतरागी आत्मा, अपने ही आत्मा के बारा, अपने ही आत्मा में अपने ही आत्मा को निश्चल होकर देखता जानता है, वही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग है, इसी से कर्मासव का निरोध होता है। अन्तर शुद्ध द्रव्य, एकरूप, निष्क्रिय, ध्रुव चिदानन्द सो निश्चय तथा उसके अवलम्बन से प्रगट हुई निर्विकल्प मोक्षमार्ग दशा व्यवहार है। अध्यात्म का ऐसा निश्चय-व्यवहार ज्ञानी ही जानता है, अज्ञानी नहीं। प्रश्न - निश्चय मोक्षमार्ग की प्राति किससे होती है? समाधान- अपने सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप के दोषों को दूर करके उन्हें निर्मल करना, उनमें सदा अपने को एकमेक रूप से वर्तन करना लाभ, पूजा, ख्याति आदि की अपेक्षा न करके निस्पृह भाव से उन सम्यग्दर्शन आदि को निराकुलता पूर्वक वहन करना, संसार से भयभीत अपनी आत्मा में इन सम्यग्दर्शनादि को पूर्ण करना। परीषह-उपसर्ग आने पर भी स्थिर होकर समाधिपूर्वक मरण करने पर ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। प्रश्न- जब “ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:" कहा है तो इसे व्यवहार-निश्चय का भेद करके क्यों कहा गया है ? समाधान- सबसे प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। जब काललब्धि आदि के योग से

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