Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 66
________________ श्री त्रिभंगीसार जी ९५ गाथा-५२,५३,५४ (मति श्रुतं च उत्पाद्यंते) मति और श्रुत ज्ञान परिपूर्ण शुद्ध प्रगट होने पर (अवधं चारित्र संजुत्तं ) सम्यक्चारित्र में लीनता रूप अवधिज्ञान प्रगट होता है (षट् कमलं त्रि उर्वकारं ) षट्कमल के द्वारा ॐ हीं श्रीं की साधना करने से (उदयं अवधि न्यानयं) अवधिज्ञान प्रगट होता है। विशेषार्थ- यहाँ आसव के निरोधक मति-श्रुत-अवधिज्ञान रूप तीन भावों को स्वात्मानुभव रूप बतलाया है। इसका ज्ञानपूर्वक-ध्यानपूर्वक योग साधना के माध्यम से विवेचन किया है। मतिज्ञान- पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा अपनी शक्ति अनुसार जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान- मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानना श्रुतज्ञान है। अवधिज्ञान-जो द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय या मन के निमित्त बिना रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । सम्पज्ञान- सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्तान होता है। सम्यक्दर्शन कारण और सम्यक्ज्ञान कार्य है। जब सम्यक्दृष्टि जीव अपने उपयोग में युक्त होता है तब मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष होते हैं, यह दशा चौथे गुणस्थान से होती है। निश्चय भाव श्रुतज्ञान, शुद्धात्मा के सन्मुख होने से सुख संवित्ति ज्ञान स्वरूप है । यद्यपि यह ज्ञान निज को जानता है तथापि इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पों के समूह रहित होने से निर्विकल्प है उसे आत्मज्ञान कहते हैं। ध्यान करने वाले को उचित है कि पहले आत्मा के व परद्रव्य के स्वरूप को यथार्थ जैसा का तैसा जाने व श्रद्धान करे, फिर परद्रव्य को अप्रयोजनभूत जानकर छोड़ दे। अपने में ही अपने को स्थापित करे। पहले शास्त्राभ्यास से अपने स्वरूप का भाव अपने में स्थापित करे और जब एकाग्र हो जावे तब कुछ चिन्तवन न करे। गुरू महाराज श्रीमद् जिन तारण स्वामी ने अपने प्रत्येक ग्रंथ में षट् कमल का वर्णन किया है। ध्यान और योग करके षट् कमल साधना द्वारा योगी समाधिस्थ होता है। प्रश्न -यह योगी की स्थिति क्या है? समाधान -योग की साधना करना, अर्थात् मन-वचन-काय की एकाग्रता पूर्वक उपयोग का इनसे भिन्न रहना। इसके लिए श्री गुरू महाराज ने षट् कमल के माध्यम से छत्तीस अर्क की साधना की है। प्रश्न - श्री गुरू महाराज ने योगी की षट् कमल की बात अपने ग्रंथों में लिखी है पर इसकी साधना कैसे की जाती है इसे खुलासा करके बताइये। समाधान- आत्मा और शरीर का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, दुध पानीवत् एक हो रहा है। अब इसमें मन की विशेषता है, मन की गति चंचल और बहुमुखी होती है। वह हर घड़ी चंचलता मन और उछल कूद में व्यस्त रहता है, इस उथल-पुथल के कारण मनुष्य का जीवन यों ही नष्ट अस्त-व्यस्त होता रहता है, यदि उस शक्ति का एकत्रीकरण हो जाता है, उसे एक स्थान पर संचित कर दिया जाता है तो आतिशी शीशे जैसी अग्नि प्रज्वलित हो सकती है। ध्यान एक ऐसा सूक्ष्म विज्ञान है, जिसके द्वारा मन की बिखरी हुई बहुमुखी शक्तियाँ एक स्थान पर एकत्रित होकर एक कार्य में लगती हैं, जिससे असाधारण शक्ति का स्रोत प्रवाहित हो जाता है। ध्यान द्वारा मन को एकाग्र कर आत्म स्वभाव की साधना की जाती है, जिससे संपूर्ण कर्म क्षय होकर केवलज्ञान परमात्म पद प्रगट होता है। इसकी श्री गुरू महाराज ने षट् कमल के माध्यम से योग साधना की है। सभी ज्ञानी संतों ने अपने-अपने क्रम से योग ध्यान-साधना विविध प्रकार की है। अध्यात्म की दृष्टि से यह गुरू महाराज की योग ध्यान साधना-विशेष महत्वपूर्ण है। प्रश्न- इसकी विशेषता और साधना पद्धति क्या है? समाधान- श्री गुरू महाराज ने षट् कमल-शरीर के विशेष महत्वपूर्ण संवेदन शील स्थानों को योग-ध्यान-साधना से खिलाया है। यह षट् कमल- गुप्त कमल, नाभि कमल, हृदय कमल, कंठ कमल, मुख कमल और विन्द कमल हैं। इन्हीं को योग वैदिक दर्शन में षट्चक्र कहा है मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, अनाहद चक्र, विशुद्धाख्येय चक्र ,आज्ञा चक्र । योग वासिष्ठ में ,अष्टांग योग बताया है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान और समाधि, और भी शारीरिक क्रिया के द्वारा नाना प्रकार से योग साधना की जाती है; परन्तु अध्यात्म दृष्टि से और सबका सार तथा सबसे श्रेष्ठ सबसे श्रेष्ठ आत्म स्वरूप के लक्ष्य से श्री गुरू महाराज ने षट् कमल की साधना की है जो विशेष महत्वपूर्ण है।

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