Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 65
________________ श्री त्रिभंगीसार जी विशेषार्थ- जब आत्मा शुद्ध निश्चय नय का आश्रय लेता है तब जो आत्मा है वही ज्ञान है,वही दर्शन है, वही चारित्र है, वही शुद्ध ज्ञान चेतना है, मन के सभी विचार प्रवाह बन्द हो जाने से शाश्वत आत्मा का स्वभाव प्रगट होता है । यही स्वभाव का अनुभव मोक्ष का कारण है; इसलिए पहले मोह कर्म का क्षय होता है। जिस तरह राजा के मरने पर राजा की सेना प्रभाव रहित होकर स्वयं भाग जाती है, उसी तरह मोह-राग के क्षय होने पर शेष तीन घातिया कर्म भी क्षय हो जाते हैं। तब तीन लोक में पूज्य, अरिहन्त पद प्रगट हो जाता है , यही उपादेय है; फिर अघातिया कर्म का क्षय होने से सिद्ध पद प्रगट होता है, जो शाश्वत, त्रिकाली ध्रुव स्वभाव है। ऐसे अपने ध्रुव, शाश्वत, चैतन्य स्वरूप का चिन्तन करने से कर्मासव का निरोध होता गाथा-५२,५३,५४ जिसने आत्मा को पहिचाना है, अनुभव किया है, उसको आत्मा ही सदा समीप वर्तता है। प्रत्येक पर्याय में शुद्धात्मा ही मुख्य रहता है। विविध शुभ भाव आयें तब कहीं शुद्धात्मा विस्मृत नहीं हो जाता, अपना शाश्वत ध्रुव स्वभाव ही उपादेय रहता है, इसी से कर्मास्रव का निरोध होता है। मोक्ष केवल एक अपने आत्मा की, पर के संयोग रहित शुद्ध अवस्था का नाम है। उसका उपाय भी निश्चय नय से एकमात्र यही है कि अपने शुद्धात्मा का अनुभव किया जावे तथा सिद्ध परमात्मा के समान अपने को माना जावे जब ऐसा बार-बार अभ्यास और साधना की जाये,अपने शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय और अनुभव से ही आश्रव के अभाव पूर्वक मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। छटवें गुणस्थान वाले जीव को अन्तर्मुहूर्त में अपना ध्यान (निर्विकल्प अनुभूति ) न आये तो वह छटवाँ-सातवाँ गुणस्थानवर्ती नहीं रहता; चौथे पाँचवें गुणस्थान में लम्बे समय के बाद निर्विकल्प अनुभव होता है परन्तु ज्ञान लब्ध रूप से तो सदा ही वर्तता है । "मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ " ऐसा भान होने पर जब अनुभव करता है तब सिद्ध समान ही आत्मा का अनुभव करता है। सिद्ध जितना पूर्ण अनुभव तो नहीं किन्तु सिद्ध की जाति का ही अनुभव होता है। निज स्वभाव में स्थिर होता है तभी आत्मतत्व की अनुभूति होती है। अरिहन्त सिद्धों को जैसा अनुभव होता है वैसा धर्मी जान लेता है। आत्मा स्वयं शुद्ध आनन्द-कन्द है, ऐसी श्रद्धा सहित अनुभव पूज्य है, वही परम है, धर्म है, जिनवाणी का सार है। आत्मशक्ति में ज्ञान व आनंद भरा हुआ है। शक्ति के व्यक्त रूप अनुभव से ही चिदानन्द में निखार आता है। अनुभव ही भव से पार लगाता है, यही सब दोषों का नाश करता है। सभी विभावों से उदासीन और अत्यंत शुद्ध निज पर्याय का सहजरूप से आत्मा सेवन करे, उसे श्री जिनेन्द्र भगवान ने तीव्र ज्ञान दशा कहा है। जिस दशा के आये बिना कोई भी जीव बन्धनमुक्त नहीं होता। सत्य का ज्ञान होने के बाद मिथ्या प्रवृत्ति दूर न हो ऐसा नहीं होता; क्योंकि जितने अंश में सत्य का ज्ञान हो उतने अंश में मिथ्या भाव वृत्ति दूर हो, ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा का निश्चय है। ७. मति, सुत, अवधि न्यान: वीन भाव गाथा- ५२,५३,५४ मति कमलासनं कंठं,जिन उक्तं स्वात्मचिंतनं । उर्वकारं च विदंते, सुख मति सास्वत धुवं । श्रुतस्य हृिदयं चिन्ते, अचष्यु दर्सन दिस्टितं । उर्वकारं हियंकारं च, सार्थ न्यान मयं धुवं । मति श्रुतं च उत्पाधंते, अवध चारित्र संजुत्तं । षट् कमलं त्रि उवंकारं, उदयं अवधि न्यानयं॥ अन्नवार्य-(मति कमलासनं कंठं) कंठ में कमलासन पर मतिज्ञान सुबुद्धि रूपी सरस्वती से (जिन उक्तं स्वात्म चिंतनं ) जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा कहे गये निज शुद्धात्म स्वरूप का चिंतन अनुभव करना (उर्वकारं च विंदंते ) और परमात्म स्वरूप को अनुभूति में लेना (सुद्ध मति सास्वतंधुवं ) यही शुद्ध अविनाशी निश्चल मतिज्ञान है। (श्रुतस्य ह्रिदयं चिन्ते ) श्रुतज्ञान का हृदय में चिन्तन करना (अचष्यु दर्सन दिस्टितं ) अचक्षु दर्शन में अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना (उर्वकारं ह्रियंकारं च) यही परमात्म स्वरूप और अरिहंत सर्वज्ञ स्वरूप है (सार्धंन्यान मयं धुवं ) ऐसे अपने ज्ञान मयी ध्रुव स्वभाव को साधना, अनुभूति में लेना।

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