Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 52
________________ श्री त्रिभंगीसार जी ज्ञानी को भगवान आत्मा आनंद स्वरूप और राग आकुलता स्वरूप दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं । त्रिकाली नित्यानंद चैतन्य प्रभु पर दृष्टि पड़ते ही जो ज्ञान होता है वह चैतन्य व राग को अत्यंत भिन्न जानता है। जिसे तत्व दृष्टि की प्राप्ति हुई है वही सम्यक्ज्ञानी है। जिसे तत्वदृष्टि प्राप्त नहीं है उसमें चैतन्य व राग को भिन्न जानने की क्षमता भी नहीं है । ३२. कान, कार्य, दुचित्त : तीन भाव गाथा -४० कारनं मिथ्या मयं प्रोक्तं, कार्यं दुर्गति बन्धनं । दुचितं अनितं वन्दे, त्रिभंगी नरय स्तितं ॥ अन्वयार्थ - (कारनं मिथ्या मयं प्रोक्तं) मिथ्यादर्शन सहित परिणाम संसार का कारण कहा गया है (कार्यं दुर्गति बन्धनं ) उसका कार्य दुर्गति का बन्ध है (दुचित्तं अन्रितं वन्दे ) जो नाशवान पदार्थ अथवा कुदेव कुगुरु आदि की वन्दना भक्ति करता है उसका दुचित्त अर्थात् वह हमेशा चिन्तित रहता है (त्रिभंगी नरय स्तितं) यह तीनों भाव नरक में ले जाने वाले हैं । विशेषार्थ - जैसा कारण होता है वैसा कार्य होता है तथा जैसा कार्य होता है वैसा चित्त (चिन्तन) होता है । मिथ्यात्व के तीन भेद हैं- १. तत्व में अरुचि, २. अतत्व अभिनिवेश और, ३ . तत्व में संशय । साधक की प्रारंभिक अवस्था में बाधक कारण- १. स्वयं की आन्तरिक दुर्बलता, २. भोगासक्ति आलस्य (प्रमाद) और ३. शरीर - इन्द्रिय आदि में सुख बुद्धि है । साधक प्रथम भूमिका में शरीरादि को तो अपने से भिन्न मान लेता है किन्तु शरीर और इन्द्रियों द्वारा होने वाली खाना, पीना, सोना, सुनना, बोलना, करना आदि क्रियाओं को तथा मन से होने वाले चिन्तन और बुद्धि से होने वाले निश्चय को अपनी क्रिया मानता रहता है। इधर ध्यान ही नहीं देता कि जब शरीरादि सब भिन्न हैं तो फिर होने वाली क्रियायें भी तो भिन्न हैं, स्वयं में कहाँ हैं ? यह मिथ्यादर्शन सहित परिणाम संसार का कारण कहा गया है । "शरीर मैं हूँ " ऐसा संबंध जोड़ने पर शरीरादि के नाश का भय अपने ही नाश का भय हो जाता है। " शरीर मेरा है " ऐसा मानने पर शरीर के लिए खाद्य एवं परिधार्य वस्तुओं की आवश्यकता अपने लिये ही प्रतीत होने लगती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के कार्य में लगना दुर्गति का बन्धन है । ६६ ६७ गाथा ४० साधकों से प्राय: यह बड़ी भूल होती है कि सुनते पढ़ते और विचार करते समय वे जिस बात को ठीक समझते हैं उस पर दृढ़ता से स्थिर नहीं रहते तथा उसे महत्व नहीं देते हैं । इससे चित्त अनेक संकल्प - विकल्प और चिन्ताओं में फँसा रहता है । ऊपर से कुछ करते हैं और अन्तरंग परिणति कुछ और ही चलती है। यह दुचित्त विषम परिस्थितियों में डाँवाडोल हो जाता है, जिससे नाशवान, जड़ पदार्थ अथवा कुदेवादि की मान्यता करने लगता है। जिस प्राणी, पदार्थ, घटना, क्रिया और परिस्थिति को अपने दुःख का हेतु या सुख में बाधक मानता है, उसके प्रति अन्त:करण में दुर्भाव, असहिष्णुता और उसे नष्ट करने के भाव करता है, इस प्रकार के भाव नरक में ले जाते हैं। अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति और घटना आदि के संयोग वियोग में साधक के अन्त:करण में हलचल का होना दुचित्त है और हलचल का न होना ही उसकी समचित्तता है । इस विषय में बहुत ही मार्मिक एवं समझने की बात यह है कि विनाशी एवं विकार वाली वस्तुओं का महत्व होने से साधक का चित्त ही विषम होता है, स्वरूप नहीं। वह तो सदैव एकरस रहता है उसमें कभी विषमता आ ही नहीं सकती। साधक को चाहिए कि वह अपनी परिवर्तनशील दशा (पर्याय) में अपनी (स्वरूप की ) स्थिति न माने और न देखे, अपितु अपने स्वरूप को ही देखे । वर्तमान स्थिति से लेकर निर्विकल्प स्थिति तक दशा अर्थात् अवस्था, पर्याय है जो कि परिवर्तनशील है । स्वरूप अवस्था नहीं अपितु अवस्था का प्रकाशक है। जिसका कोई आदि न हो उसे अनादि कहा जाता है। जीव और अजीव दोनों अनादि होने से समान हैं किन्तु जीव, अजीव से विलक्षण है । जीव, चेतन ज्ञान स्वभावी परमात्म स्वरूप है और अजीव, अचेतन जड़ पुद्गल है । जब तक जीव का अशुद्ध परिणमन है तब तक जीव का विभाव रूप परिणमन है । उस विभाव परिणमन का अन्तरंग निमित्त जीव की विभाव परिणमन रूप शक्ति है और बहिरंग निमित्त मोहनीय कर्म का उदय है। मोहनीय कर्म दो प्रकार का है - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । जीव का सम्यक्त्वगुण विभावरूप होकर मिध्यात्व रूप परिणमता है तथा एक चारित्र गुण है जो विभाव रूप होकर कषाय रूप परिणमता है। इस प्रकार जैसा कारण होता है वैसा कार्य होता है और वैसा ही चिन्तन चलता है।

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