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श्री त्रिभंगीसार जी
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गुण या पर्याय उस द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकते। इस प्रकार जो अपने क्षेत्र में अलग नहीं हो सकते और पर द्रव्य में नहीं जा सकते तो वे उसका क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं। एक द्रव्य, गुण या पर्याय दूसरे द्रव्य की पर्याय में कारण नहीं होते इसी प्रकार वे दूसरे का कार्य भी नहीं करते। ऐसी अकारण कार्यत्व शक्ति प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान है ऐसी समझ होने पर कारण विपरीतता दूर हो जाती है।
२. प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, जीवद्रव्य चेतना गुण स्वरूप है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण स्वरूप है । मैं पर का कुछ कर सकता हूँ और पर मेरा कुछ कर सकता है, तथा शुभ विकल्प से लाभ होता है । जब तक जीव ऐसी विपरीत मान्यता में रहता है तब तक उसकी अज्ञान रूप पर्याय बनी रहती है। जब जीव यथार्थ को समझता है या सत् को समझता है तब यथार्थ मान्यतापूर्वक उसे सच्चा ज्ञान होता है। उसके परिणाम स्वरूप क्रमशः शुद्धता बढ़कर सम्पूर्ण वीतरागता प्रगट होती है। अन्य चार द्रव्य - धर्म, अधर्म, आकाश और काल अरूपी हैं, उनकी कभी अशुद्ध पर्याय नहीं होती । इस प्रकार समझ लेने पर स्वरूप विपरीतता दूर हो जाती है ।
३. पर द्रव्य, जड़कर्म और शरीर से जीव त्रिकाल भिन्न है। जब वे एक क्षेत्रावगाह संबंध से रहते हैं तब भी जीव के साथ एक नहीं हो सकते। एक द्रव्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव दूसरे द्रव्य में नास्ति रूप हैं क्योंकि दूसरे द्रव्य से वह द्रव्य चारों प्रकारों से भिन्न है प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने गुण से अभिन्न है क्योंकि उससे वह द्रव्य कभी पृथक् नहीं हो सकता । इस प्रकार समझ लेने पर भेदाभेद विपरीतता दूर हो जाती है।
अज्ञानी जीव इस असत् क्षणिक भाव को अपना मान रहा है अर्थात् वह असत् को सत् मान रहा है । इस भेद को जान कर जो असत् को गौण करके सत् स्वरूप पर दृष्टि देकर अपने ज्ञायक स्वभाव की ओर उन्मुख होता है वह मिथ्याज्ञान को दूर करके सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है । सम्यग्ज्ञान प्रगट होने पर ही कुज्ञान का अभाव होता है तभी कर्मानव से बचा जा सकता है।
५. आर्त, रौद्र, मिश्र : तीन भाव
गाथा - १३
आर्त ध्यान रतो भावं, रौद्र ध्यान समं जुतं । मिस्रस्य राग मयं मिथ्या, त्रिभंगी नरयं पतं ॥
गाथा-१३
अन्वयार्थ - (आर्त ध्यान रतो भावं) आर्तध्यान में लीन भाव (रौद्र ध्यान समं जुतं ) रौद्र ध्यान सहित भाव में जुड़े रहना (मिस्रस्य राग मयं मिथ्या) आर्तध्यान एवं रौद्र ध्यान दोनों का मिश्रित भाव है (त्रिभंगी नरयं पतं) यह तीनों भाव नरक में गिराने वाले हैं।
विशेषार्थ - आर्त, रौद्र, मिश्र यह तीन भाव भी कर्मास्रव के कारण हैं। मिथ्यात्व सहित तो यह नरक ले जाने वाले होते हैं। सम्यक्दर्शन सहित छठवें गुणस्थान तक आर्त ध्यान और पाँचवे गुणस्थान तक रौद्र ध्यान होता है, वहाँ तक कर्मास्रव और बन्ध है जो संसार का ही कारण है।
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प्रथम आर्तध्यान - जहाँ दु:खित, आकुलित, क्षोभित, शोकार्त परिणाम हों उसको आर्तध्यान कहते हैं। बहुत समय तक एक विषय की चिन्ता, चिन्तन करना, उसमें एकाग्र होना ही ध्यान है । यह आर्तध्यान चार कारणों से होता है अत: इसके चार भेद हैं :
१. इष्ट वियोगज-मन को प्रिय स्त्री, पुत्र, मित्र, भोजन वस्त्र आदि का वियोग हो जाने पर उनके संयोग की कामना करके चिंता करते हुए दुःखित होना ।
२. अनिष्ट संयोगज-मन को अप्रिय स्थान, वस्त्र, भोजन, स्त्री, पुत्र, नौकर, आभूषण, शत्रु आदि का संयोग होने पर उससे छुटकारा पाने की चिन्ता में दुखित होना ।
३. पीड़ा चिन्तवन- वेदना जनित रोगों के होने पर पीड़ा के कारण चिन्तातुर होना । ४. निदानज - आगामी भोगों के मिलने की आशा तृष्णा से आकुल भाव रखना ।
यह चारों आर्तध्यान मिथ्यादृष्टि के भीतर बहुत तीव्र होते हैं। उससे मिध्यात्वी जीव कभी नरक आयु बांध कर नारकी हो जाता है। यदि कषाय की तीव्रता कम होती है तो तिर्यंच आयु बांधकर तिर्यंच हो जाता है । इष्ट वियोग आर्तध्यान के कारण दूसरे स्वर्ग के देव एकेन्द्रिय तिर्यंच व बारहवें स्वर्ग तक के देव पंचेन्द्रिय तिर्यंच हो जाते हैं।
ज्ञानी को वस्तु स्वरूप विचार कर कर्मों के उदय को समझकर सन्तोष रखना चाहिए । चौथे-पाँचवें गुणस्थान में संयोग के कारण तो यह होते ही हैं, छटवें गुणस्थान में साधु को भी निदान के सिवाय तीन आर्तध्यान का सद्भाव रहता है ।
दूसरा रौद्र ध्यान- रूद्र, क्रूर, दुष्ट आशय से जहाँ चिन्ता किसी एक दुष्ट अभिप्राय में प्रवर्ते उसको रौद्र ध्यान कहते हैं। यह ध्यान चार कारणों की अपेक्षा से होता है इसलिए इसके भी चार भेद हैं-हिंसानंदी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी ।
१. हिंसानन्दी-हिंसा करने कराने में व सम्मति देने में आनन्दित होना । मिथ्यादृष्टि जीव