Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 35
________________ ३२ श्री त्रिभंगीसार जी विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन सहित संयम, तप और परिणमन या चारित्र मोक्षमार्ग है। जहाँ शुद्धात्म तत्व का अनुभव है वहीं सच्चा सम्यक्दर्शन है, सच्चा संयम, सच्चा तप और आत्म परिणमन रूप चारित्र है। मिथ्यादर्शन सहित कठिन संयम, तप व चारित्र भी मिथ्या है और संसार का कारण है; क्योंकि मिथ्यादृष्टि न तो शुद्धात्म तत्व को पहिचानता है और न ही मोक्षतत्व को जानता है । मिथ्यादृष्टि को कोई न कोई कषाय-वासना रहती ही है, जो बाह्य व्यवहार में दृष्टिगोचर नहीं होती। बाह्य व्यवहार में वह संयम, तप, चारित्र का पालन करता है और अंतर में वासना, इच्छा, मायाचारी से ग्रसित होता है; अत: ऐसे जो संसारी कामना वासना को लेकर बाह्य संयम, तप और चारित्र का पालन करते हैं किन्तु अंतरंग में शुद्धात्म तत्व का अनुभवन नहीं करते वे द्रव्यलिंगी साधु भी मिथ्या संयम, तप, चारित्र के कारण निगोद के ही पात्र होते हैं। परमार्थभूत आत्मज्ञान से शून्य जो तप व व्रत धारण करते हैं वह सर्वज्ञदेव के कथनानुसार अज्ञान तप और अज्ञान व्रत के कर्ता हैं। शुद्धात्म अनुभव के बिना अज्ञान तप करने वाले पुण्य रूप शुभ भाव करते हैं किन्तु मोक्ष व मोक्ष के साधन को नहीं जानतेजो वस्तुत: संसार का ही कारण है। ___ जहाँ मिथ्यात्व का अंश है, अज्ञानभाव, विपरीत मान्यता है वहाँ बाह्य में कितना ही संयम ,तप, चारित्र का पालन किया जाये,वह सब आसव बन्ध का ही कारण है। इससे भले ही पुण्यबन्ध होगा किन्तु मुक्ति नहीं हो सकती। आत्मज्ञान रहित जितनी भी क्रियाएँ हैं वे सब बन्ध की ही कारण हैं और निगोद में ले जाने वाली हैं। प्रश्न-क्या संसारी जीव को ब्रत-संयम-तप का पालन नहीं करना चाहिए ? समाधान -जहाँ जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर संवर-निर्जरा पूर्वक मोक्ष प्राप्त करने की बात चल रही हो वहाँ सभी विपरीत भाव संसार के कारण हैं। विपरीत मान्यता रूप परिणमन तो संसार का कारण ही है, यहाँ तक कि सम्यक्त्व सहित संयम-तप भी पुण्य भाव होने से बन्ध के ही कारण हैं अत: मोक्षाभिलाषी इनसे भी बचने का भाव रखते हैं; किन्तु संसारी जीव को पाप विषय-कषाय से बचने के लिए व्रत, संयम, तप का साधन बताया है, जिसका पालन करने से पापबन्ध से बचकर वह दुर्गतियों से बच सकता है; तो भी इससे उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। प्रश्न-परन्तु यहाँ मिथ्या संयम, तप से निगोद का पात्र होना बताया है, इसका क्या अभिप्राय है? समाधान- मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। जीव के भाव अपेक्षा अज्ञान मिथ्यात्व सहित ३३ गाथा-१८ जीव किस भाव से क्या करता है ? उसका अभिप्राय क्या है ? यह बहुत सूक्ष्म विषय है। वस्तुत: मूल अभिप्राय में जब जैसा भाव हो उसी के अनुसार वह गति पाता है। जैसे कोई साधु सन्यासी होकर मठ बनवाते हैं, धन एकत्रित करते हैं, शिष्य समुदाय बढ़ाते हैं, पैर पुजवाते हैं, मान-सम्मान चाहते हैं, अधर्म अन्याय अनीति करते हैं। कोई पुण्य प्राप्ति का, परलोक में इन्द्र पद या राजा-महाराजा के ऐश्वर्य का भोग करने की अभिलाषा रखकर चारित्र पालते हैं। ऐसे हिंसाकारी-रागवर्धक कर्म करते हुए अपने को संयमी -तपस्वी व चारित्रवान मान लेते हैं, जो महान बन्ध का कारण है। इस बन्ध के कारण जीव नीच गोत्र, एकेन्द्रिय निगोद आदि में जन्म लेते हैं। १०.माया, मिथ्या, निदान : तीन भाव गाथा-१८ माया अनितं रागं, मिथ्यात मय संजुतं । असत्यं निदान बन्धं, त्रिभंगी नरयं दलं॥ अन्ववार्थ-(माया अनितं रागं) मिथ्या क्रिया, झूठा राग भाव माया है (मिथ्यात मय संजुतं) मिथ्यात्व में लीन रहना, मिथ्याभाव है (असत्यं निदान बन्धं) असत् पदार्थ की तृष्णा निदान बंध है (त्रिभंगी नरयं दलं) यह तीनों भाव नरक में पतन कराने वाले हैं। विशेषार्थ- माया, मिथ्या, निदान यह तीनों भाव महान कर्मासव के कारण हैं क्योंकि तीनों में तीव्र लोभ, राग की भूमिका है। लोभ के सद्भाव में, लोभ के वशीभूत होकर मायाचारी करता है, मिथ्यात्व का सेवन करता है तथा निदान भाव करता है। माया ,मिथ्या, निदान यह तीन शल्य भी हैं। जब तक माया,मिथ्या ,निदान के भाव रहते हैं तब तक जीव निराकुल, नि:शल्य, निश्चिंत नहीं हो सकता है। ___ मायाचार स्व- पर दोनों को बहुत दु:खदायी है । यह जीव लोभ के वशीभूत होकर दूसरों को ठगने के लिए मिथ्याभावों को विचारता है, मिथ्यावचन कहता है, मिथ्या व्यवहार करता है, कुटिलताई से मन-वचन-काय द्वारा अपने परिणामों को महान हिंसक बना लेता है। मायाचार, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह पाँचों पापों का मूल है। "ऐसा नहीं ऐसा होता", यह माया शल्य का भाव है जो जीव को समता-शांति से नहीं रहने देता। वह परिग्रह में मूर्छावान होने से नरकायु बांध लेता है। ऐसा न हो जाये" यह

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