Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 37
________________ श्री त्रिभंगीसार जी ३७ गाथा-२१ १२. मद, मान, माया: तीन भाव गाथा-२० मदस्टं मान सम्बन्ध,माया अत्रितं क्रितं । भावं असुख सम्पून, त्रिभंगी थावरं दलं॥ अन्वयार्थ-(मदस्टं मान सम्बन्धं ) मद आठ प्रकार का होता है जो मान से सम्बन्ध रखता है (माया अनितं क्रितं) झूठी मायाचारी करना (भावं असुद्ध सम्पून) यह तीनों भाव सर्वथा अशुद्ध भाव हैं (त्रिभंगी थावरं दलं) इन तीनों भावों में फंसा जीव स्थावर काय का पात्र होता विशेषार्थ- जगत में पुण्य के उदय से मनुष्य को आठ प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं उत्तम जाति, उत्तम कुल, धन, रूप, बल, अधिकार, विद्या, तप। इन आठों शक्तियों में से कुछ विशेषताएं होने पर अज्ञानी जीव अभिमानी हो जाता है, मद करने लगता है, इसलिए यह आठ मद कहलाते हैं। जैसे कोई नशा करने से मनुष्य मदमत्त हो जाता है उसी प्रकार इस मद में जीव मदहोश हो जाता है। इनमें ज्ञान और तप का मद करने से तिर्यंच आयु नीच गोत्र बाँधकर एकेन्द्रिय स्थावर में जन्मता है। मान कषाय सिर पर चढ़कर बोलती है। मानी, क्रोधी होता है । अपने अहंकार के नशे में डूबा रहता है, हमेशा द्वेषभाव ही चलता रहता है। अपना बड़प्पन प्रगट करने के लिए मान-बड़ाई में धन खर्च करता है अर्थात् धर्म भी अभिमान की पुष्टि के लिए करता है। मन में कठोर भाव होने से दया नहीं होती, उसका एक ध्येय अभिमान पोषण हो जाता है। यदि कोई जरा सा भी अपमान करे तो वह शत्रु बन जाता है और शत्रु का किसी भी तरह से अपमान और नाश करने की कोशिश करता है।मायाचारी भी इन्हीं सब कार्य-कारणों से होती है, मन में कुछ रहता है, वचनों से कुछ कहता है और शरीर से कुछ करता है । हमेशा अपने भावों में कुटिलता रहती है। इन तीनों भावों से अशुभ आयुबन्ध होता है जिससे स्थावर आदि में जाना पड़ता है। अपने उन गुणों को कहना जो स्वयं में नहीं हैं, दूसरों के उन गुणों को ढाँकना जो उनमें हैं। स्वप्रशंसा, परनिंदा, नीच गोत्र के आस्रव भाव हैं। अज्ञानी जीव शास्त्रों का रहस्य नहीं समझता अत: उसका समस्त ज्ञान, कुज्ञान है । मिथ्यादृष्टि, ग्यारह अंग नौ पूर्व का पाठी हो तो भी वह अज्ञानी ही है। द्रव्यलिंगी विषय सेवन छोड़कर, तपश्चरण करे तो भी वह असंयमी ही है। द्रव्यलिंगी दिगम्बर साधु नौ कोटि बाढ़ ब्रह्मचर्य पालन करे, मन्द कषाय करे परन्तु आत्मा का भान न होने से उसे चतुर्थ व पंचम गुणस्थान वाले ज्ञानी से हीन बतलाया है। १३.कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र: तीन भाव गाथा-२१ कुदेवं कुगुरुं वन्दे, कुसास्त्रं चिंतनं सदा। विकहा अत्रित सद्भावं, त्रिभंगी नरयं दलं ॥ अन्वयार्थ -(कुदेवं कुगुरुं वन्दे) जो कुदेवों, कुगुरुओं की वन्दना भक्ति करता है (कुसास्त्रं चिंतनं सदा) हमेशा कुशास्त्रों को पढ़ा करता है, उनका चिंतन करता है (विकहा अनित सद्भाव) खोटी कथा, व्यर्थ चर्चा में लगा रहता है (त्रिभंगी नरयं दलं)इन तीनों के आराधन से नरक गति का पात्र हो जाता है। विशेषार्थ- राग-द्वेष, मोह संसार है, जो देव इन राग-द्वेष, मोह के वशीभूत हैं, अज्ञानी हैं वे सब कुदेव हैं। व्यंतर, भवनवासी, ज्योतिषी, वैमानिक देवों को अपना इष्ट करने वाले इष्टदेव मानना, उनकी पूजा वन्दना, भक्ति करना कुदेव की मान्यता है; क्योंकि सच्चे देव वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी परमात्मा अरिहन्त-सिद्ध होते हैं जो मोक्षगामी हैं, जिन्होंने सभी जीवों को आत्मस्वरूप का बोध कराया और संसार के दु:खों से छूटने का उपाय बतलाया है। अज्ञानी जीव पुत्र-धनादि सांसारिक प्रयोजन का लोभी होकर कुगुरु द्वारा बताये हुए रागी-द्वेषी देवों की आराधना किया करता है। उन देवों को प्रसन्न करने के लिए हिंसक कार्य पशुबलि तक दे देता है, उनसे सदा भयभीत रहता है, उनकी अवमानना में अपना नाश मानता है। देवगतिधारी इन्द्र, धरणेन्द्र, पद्मावती, देवी, चक्रेश्वरी, राक्षस, भूत, पिशाच, आदि सब संसारी रागी, द्वेषी कुदेव हैं। इनकी मान्यता वन्दना करना घोर मिथ्यात्व है जो नरकादि दुर्गति में ले जाने वाला है। परिग्रहधारी, आरंभासक्त कुदेवों को पुजवाने वाले धनलोभी अनेक प्रकार के कुगुरु हैं, जो नाना वेश में मिथ्यात्व का जाल फैलाते हैं। उनके उपदेश से ही कुदेवों की भक्ति परंपरा चल रही है। कुशास्त्र वे हैं, जिनमें मिथ्याधर्म का उपदेश हो, एकांत कथन हो, हिंसा में धर्म बताया गया हो, पापबन्ध के कारणों और पुण्य को धर्म कहा हो । स्त्रीकथा ,भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा आदि सांसारिक प्रपंचों में उलझाने वाली व्यर्थ चर्चा, राग-द्वेष को बढ़ाने वाली कथाऐं भी कुशास्त्र हैं। स्वार्थी प्राणी लोभ के वशीभूत कुधर्म पोषक मिथ्या शास्त्रों को मानता है,

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