Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 43
________________ ४९ श्री त्रिभंगीसार जी से कर्मों से छूट सकता है। यह आत्मा स्वभाव से परमात्मा रूप है। शुद्ध ज्ञान, दर्शन, वीर्य, आनंद आदि गुणों का समुदाय है। इसी के शुद्ध स्वरूप के श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र को रत्नत्रय धर्म कहते हैं। यह धर्म स्वानुभव स्वरूप है। सच्चा सुख अतीन्द्रिय है जो स्वानुभव से प्राप्त होता है। संसार असार है, शरीर जड़-अचेतन नाशवान है, रोग भोग के समान हैं। स्वाधीनता ही ग्रहण करने योग्य है, पराधीनता त्यागने योग्य है । ऐसा सच्चा श्रद्धान जिनवाणी के द्वारा तत्वनिर्णय, वस्तुस्वरूप जानने से होता है। ज्ञान प्रमाण है, ज्ञेय प्रमेय है। जो आत्मा को, संसार व मोक्ष को, संसार मार्गव मोक्ष मार्ग को ठीक-ठीक नहीं जानता है, उन्मत्त की तरह कभी सत्य को सत्य; कभी असत्य को सत्य मान लेता है। कभी वह कहता है - "ईश्वर की मर्जी से सब कुछ होता है, कभी कहता है कि-अपने कर्मों के फल से भला-बुरा होता है।" ऐसे व्यक्ति को सत्य की गहरी प्रतीति नहीं है। वह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है, अनुमान या आगम को नहीं मानता । इस तरह भिन्न-भिन्न प्रकार के मतों को रखते हुए गम्य-अगम्य, स्थूल-सूक्ष्म पदार्थ का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, उसको सच्चा भेदविज्ञान व आत्मिक सुख की प्रतीति नहीं होती, वह संसार के भवभ्रमण में भय और दुःख का पात्र बनता है। जो कोई स्याद्वाद के ज्ञान में कुशल है और संयम में निश्चल है, वह सम्यक्ज्ञान व सम्यचारित्र के साथ निरन्तर उपयोग लगाकर अपने आत्मा की आप ही भावना करता है। वह ज्ञान व चारित्र की भिन्नता रखकर इस मोक्षमार्ग पर चलने का पात्र होता है। ___ जिन्हें आत्मा के स्वरूप की रुचि हुई है, उन्हें शुभराग आता है; परन्तु उन्हें राग से विरक्ति रूप वैराग्य होता है और आत्मा की अस्ति का शांत उपशम रस होता है। जिन्हें आत्मा की सच्ची रुचि नहीं है उनके भाव शुष्क और चंचल होते हैं। जिन्हें निज स्वभाव की दृढ श्रद्धा, रुचि और ज्ञान नहीं होता उन्हें अन्य पदार्थ का भी यथार्थ निर्णय नहीं होता, उनकी भ्रमबुद्धि रहती है जिससे कर्मास्रव होता है। २२. अद्वित, स्तेय, काम : तीन भाव गाथा-३० अनितं ब्रितं माने, स्तेयं पद लोपनं । कर्मना असुह भावस्य,त्रिभंगी नरयं पतं ॥ अन्वयार्थ-(अनितं नितं माने) क्षणभंगुर, नाशवान पदार्थ को शाश्वत मानता है (स्तेयं ४८ गाथा-३० पद लोपनं ) अपने पद तथा आगम के पद का अर्थ छिपाकर चोरी करता है (कर्मना असुह भावस्य) अशुभ भावों में रत रहकर कुशील आदि काम भाव करता है (त्रिभंगी नरयं पतं) इन तीनों अनृत, स्तेय व काम भावों में रत प्राणी नरक का पात्र होता है। विशेषार्थ- असत्, क्षणभंगुर, नाशवान पर्यायी परिणमन को सत्, शाश्वत मानना अनित भाव है। वस्तु का जो मूल स्वभाव है, वही सत्य है, नित्य है, अमिट है, उसको कुछ और जानना असत् भाव है। ___ संसार-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छह द्रव्यों का समुदाय है। इनमें धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य एक-एक हैं, कालाणु असंख्यात हैं, जीव अनन्त और पुद्गल अनन्तानन्त हैं। प्रत्येक जीव, प्रत्येक द्रव्य की सत्ता सदा भिन्न-भिन्न ही रहती है। जीव का मूल स्वभाव शुद्ध, ज्ञाता-दृष्टा, वीतराग, आनन्दमय है। वह स्वभाव से परमात्मस्वरूप है। ऐसा जानने पर भी जीव को रागी-द्वेषी, अज्ञानी, पाप-पुण्य का कर्ता, कर्म फल का भोक्ता मानना जीव तत्व का असत्य ज्ञान है। पर्याय की अपेक्षा अशुद्ध है तथा द्रव्य की अपेक्षा शुद्ध है, ऐसा जानने में आये तो यह ज्ञान असत्य नहीं है। इसी तरह शुभकार्य, जप-तप, व्यवहार चारित्र पुण्य बन्ध का कारण है, उसको मोक्ष का कारण जानना असत्य है । विषय-कषाय पोषक सर्व क्रिया धर्म नहीं है, इसे धर्म मान लेना कषाय है। जिनेन्द्र की आज्ञाप्रमाण वस्तु स्वरूप को न कहकर अन्यथा कहना तथा जिनवाणी के पद-अर्थ, भाव को छिपाना धर्म की चोरी है। ब्रह्मचर्य का घात करके कुशील सेवन करना काम भाव है। सभी इंद्रियों के विषयों की कामना करना भी काम है। यह अशुभ भाव पाप बन्ध का कारण है। जो जीव जगत में असत्य बोलते हैं, चोरी करते हैं, परस्त्री गमन करके कुशील सेवन करते हैं, अन्य विषयों का रुचिपूर्वक सेवन करते हैं, वे तीव्र राग व परिग्रह भाव से नरकायु बाँधकर नरक चले जाते हैं। जो इस असत्य संसार को सत्य जानकर धर्म का लोप करते हैं, अपने आत्महित का साधन नहीं करते व रात-दिन विषय भोगों की कामना किया करते हैं वे भी नरक के पात्र बनते हैं। जो जिनेन्द्र की आज्ञा का लोप करके मनमाना धर्म चलाकर अपने को गुरु बनाकर धन संग्रह करते हैं तथा स्वच्छंद होकर विषयसेवन करते हैं, ऐसे धर्म के ठेकेदार आदि दुर्गति के पात्र होते हैं। जगत में झूठ, चोरी, कुशील बड़े भारी पाप हैं जिनसे इस लोक

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