Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 36
________________ गाथा-२० श्री त्रिभंगीसार जी ३४ भाव मिथ्या शल्य है। मिथ्यात्व सहित धर्म की क्रिया विपरीत होती है, इसमें पाप-पुण्य का भी विवेक नहीं रहता, धर्म-अधर्म का विचार नहीं होता, अपने मन की तृप्ति के लिए अर्थअनर्थ न्याय-अन्याय कुछ भी करता रहता है। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का सेवन करता है। इन मिथ्या भावों से घोर हिंसादि पाप होते हैं, तब हिंसानन्दी भाव से नरकायु का बन्ध होता है। निदान भाव के कारण जीव आगामी भोग सामग्री की गहन तृष्णा रखता "ऐसा नहीं, ऐसा करूँगा ऐसा करना है, ऐसा होना है" यह निदान शल्य है, जिसकी कभी पूर्ति व तृप्ति नहीं होती। मन की सक्रियता से यह तीनों माया-मिथ्या-निदान भाव होते हैं, जो जीव को नरक में पतन कराने वाले होते हैं। जो भोगार्थी, अज्ञानी, मोही होकर निदान भाव करके धर्म का साधन करता है, वह चिन्तामणि रत्न को काग उड़ाने में फेंक देता है । चारित्र साधना में काम और क्रोध यह दुर्गुण घोर बाधक हैं । इन्द्रिय, मन और बुद्धि, यह तीनों काम के आधार हैं; अत: इनका नियमन भी चारित्र की सम्पन्नता के लिए परम आवश्यक है अन्यथा ज्ञान और विज्ञान दोनों नष्ट हो जायेंगे। चारित्र की नींव पर ही अध्यात्म का भव्य भवन खड़ा किया जा सकता है। चारित्रहीन व्यक्ति अध्यात्म का रसास्वादन कभी नहीं कर सकता। यह भोग मिथ्या हैं, असार हैं, क्षणभंगुर, नाशवान अतृप्तिकारी हैं किन्तु इनकी कामना, वासना, तीव्र उत्साह परिणामों में रहता है। इनमें बाधक कारणों से द्वेष होता है तथा साधक कारणों के आने की तीव्र अभिलाषा होने के कारण निदान भाव होता है। इन्हीं भावों से निरन्तर कर्मों का बन्ध होता है जो स्थावर काय में ले जाते हैं। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासी, दूसरे स्वर्ग तक के मिथ्यादृष्टि देव विषयों के अत्यंत रागी होते हैं। जब माला मुरझाने लगती है तब बड़ा शोक भाव पैदा हो जाता है। वियोग होने वाला है, उसमें द्वेष पैदा हो जाता है, साथ में निदान भी होता है। देव योनि से जाने के बाद भी भोग मिलें, उस समय ऐसे आर्त परिणामों से यह जीव तिर्यंच आयु, स्थावर नामकर्म बांध लेता है और देव मरकर वृक्षादि स्थावर काय में पैदा हो जाते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जावे तो सभी मिथ्यादृष्टि जीव इन तीन भावों में रात दिन ग्रसित रहते हैं। जो साधक इन पाँचों इन्द्रियों के राग में फँसा हुआ है, क्षणभंगुर विषय भोगों का तीव्र उत्साह रखता है, वह इन कार्यों में जो बाधक होता है उससे द्वेषभाव रखता है; उसको नष्ट करने, मारने, हटाने के भाव में निरंतर लगा रहता है। रागभाव की पूर्ति कब और कैसे होगी, इसका निदान भाव करता रहता है; जिससे निकृष्ट कर्मास्रव कर स्थावर काय में चला जाता है। प्रश्न -जो साधक पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्यागकर संयम का पालन करता हुआ धर्म साधना कर रहा है, वह इन भावों में लगकर स्थावर काय होगा, इसका प्रयोजन क्या है? समाधान- बाहर से पाँच इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर देना, संयम का पालन करना सहज है परंतु विषयों की रसबुद्धि,रागबुद्धि यही कासव बन्ध का कारण है। यह अन्तरंग परिणति सूक्ष्म है, जो साधक को अपने ज्ञान-ध्यान-साधना से विचलित भ्रष्ट करती रहती है । विषयों के प्रति राग-भाव व रसबुद्धि स्थावर काय का बन्ध कराती है। मानसिक व्यभिचार महान पाप बन्ध का कारण है इसलिए साधक को अन्तर में अत्यधिक सावधान रहने की आवश्यकता है, यह सावधानी ही कल्याण का मार्ग है। ११. राग, द्वेष, निदान : तीन भाव गाथा-१९ रागादि भावनं क्रित्वा,दोषं निदान विधते। अत्रितं उत्साहं भावं, त्रिभंगी थावरं दलं॥ अन्वयार्थ-(रागादि भावनं क्रित्वा) रागादि की भावना करने से (दोषं निदान विधते) दोष और निदान भाव बढ़ते हैं (अनितं उत्साहं भावं) क्षणभंगुर, नाशवान भोगों में उत्साह और उनके भाव (त्रिभंगी थावरं दल) यह तीन भाव स्थावर काय में ले जाने वाले हैं। विशेषार्थ- पाँचों इन्द्रियों के भोगों का रागभाव संसार का मूल कारण है, इसी से द्वेष व निदान भाव बढ़ता है।

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