Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 22
________________ श्री त्रिभंगीसार जी त्रिति अस्तितं) उस त्रिभाग के भी तीन-तीन भेद किए जाते हैं। विशेषार्थ - जिनेन्द्र कथित जिनवाणी में त्रिभंगी अर्थात् तीन-तीन बातों की बड़ी विशेषता है और ऐसे अनेक त्रिभाग समूह हैं। उस त्रिभाग में यह आयु का त्रिभाग भी किया जाता है जिससे आयु बन्ध होता है। यह आठ त्रिभाग में होता है जिसका स्पष्टीकरण अगली गाथा में किया गया है । इस आयु के त्रिभाग में आयु का बन्ध उस समय की लेश्या के अनुसार होता है । कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इसके छह भेद होते हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । १. कृष्ण लेश्या - तीव्र क्रोधी, बैर न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, किसी के वश में न आता हो, ऐसे परिणामों वाला जीव कृष्ण लेश्या वाला होता है। २. नील लेश्या - जो कार्य करने में मंद हो, विवेक रहित हो, अज्ञानी हो, विषयों में रत हो, भीरु, अति सोने वाला हो, दूसरों को ठगने में चतुर हो, धन-धान्य के विषय में तीव्र लालसा हो, ऐसे परिणामों वाला जीव नील लेश्या वाला होता है। ३. कापोत लेश्या - जो दूसरों पर क्रोध करता है, दूसरों की निंदा करता है, दूसरों पर दोष लगाता है, शोक और भय से व्याप्त रहता है, अपनी बहुत प्रशंसा करता है, दूसरों का विश्वास नहीं करता, अपने समान ही दूसरों को मानता है, स्तुति करने वाले पर प्रसन्न होता है । स्तुति करने वाले को बहुत धन दे डालता है। युद्ध में मरने के लिए तैयार रहता है । अपने हानि-लाभ की परवाह नहीं करता और कार्य-अकार्य को नहीं गिनता, ऐसे परिणामों वाला जीव कापोत लेश्या वाला होता है। ४. पीत लेश्या - जो कार्य - अकार्य को जानता है, सेव्य - असेव्य का विवेक रखता है, सबको समान रूप से देखता है, दान और दया में तत्पर रहता है और कोमल परिणामी होता है, ऐसे परिणामों वाला जीव पीत लेश्या वाला होता है। ५. पद्म लेश्या - जो त्यागी है, भद्र परिणामी है, निरन्तर कार्य करने में तत्पर रहता है, अनेक अपराधों को क्षमा कर देता है, साधुओं और गुरुजनों की पूजा में रत रहता है, ऐसे परिणामों वाला जीव पद्म लेश्या वाला होता है। ६. शुक्ल लेश्या-जो पक्षपात नहीं करता, निदान नहीं बांधता, सबके साथ समान व्यवहार करता है, इष्ट और अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष नहीं करता तथा पुत्र- मित्रादि में जो स्नेह रहित गाथा- २ ७ है, ऐसे परिणामों वाला जीव शुक्ल लेश्या वाला होता है । कृष्ण लेश्या वाला जीव नियम से नरक जाता है। कृष्ण-नील बाला जीव भी नरक जाता है। नील और नील- कापोत वाला तिर्यच गति जाता है । कापोत-पीत बाला जीव मनुष्य होता है। पीत- पद्म वाला देव होता है । पद्म और शुक्ल लेश्या बाला नियम से देवगति जाता है। (नोट : विशेष जानकारी के लिए षट् खण्डागम तथा जीवकांड गोम्मटसार आदि ग्रन्थ देखें ) कषाय सहित योग आसव का कारण है, इसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं । कषाय शब्द में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद इन तीनों का समावेश हो जाता है; इसलिए अध्यात्म शास्त्रों में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद तथा योग को आस्रव का भेद गिना जाता है। यदि उन भेदों को बाह्य रूप में स्वीकार करे और अन्तरंग में उन भावों की जाति की यथार्थ पहिचान न करे तो वह मिध्यादृष्टि है । यदि मात्र बाह्य क्रोध को कषाय समझें तथा अभिप्राय में रहने वाले राग-द्वेष जो मूल क्रोध है, को न समझें तो मिथ्या मान्यता दूर नहीं होती । बाह्य चेष्टा मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को योग समझें और शक्तिभूत आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन रूप योग को न जानें तो मिथ्या मान्यता दूर नहीं होती इसलिए अपने अंतरंग भाव पहिचान कर उस सम्बन्धी मान्यता दूर करना चाहिए। आयुबन्ध विवेचन - अपनी भुज्यमान आयु के अधिक से अधिक छह माह शेष रहने पर देव और नारकी - मनुष्यायु अथवा तिर्यंचायु का ही बन्ध करते हैं । मनुष्य और तिर्यंच अपनी आयु के तीसरे भाग के शेष रहने पर चारों आयु में से योग्यतानुसार किसी भी एक आयु को बांधते हैं। भोग भूमि के जीव अपनी आयु के छह माह शेष रहने पर देवायु का ही बन्ध करते हैं। एकेन्द्रिय और विकलत्रय जीव मनुष्यायु व तिर्यंचायु में से किसी एक को बांधते हैं परंतु तेजकायिक, वायुकायिक जीव और सातवीं पृथ्वी के नारकी तिर्यंचायु का ही बन्ध करते हैं। एक जीव के एक भव में एक ही आयु बंध रूप होती है। तब भी योग्य काल में आयु आठ त्रिभाग में ही बंधती है तथा वहाँ पर भी वह सब जगह आयु का तीसरा- तीसरा भाग शेष रहने पर लेश्या के अनुसार ही बंधती है । आठ अपकर्षणों (त्रिभागों) में पहली बार के बिना द्वितीयादि बार में जो पहले आयु बांधी थी, उसी की स्थिति की वृद्धि व हानि अथवा अवस्थिति

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