Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal
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क्र. विषय
पृष्ठ गाथा ७. मति, सुत, अवधिन्यान-तीन भाव
९३ ५२-५४ रिजु विपुल, मनपर्यय, केवल स्वरूप-तीन भाव १०४ ५५,५६ ९. स्वस्वरूप-मूल, अन्या, वेदक,-तीन भाव
१०६ ५७ १०. उपसम, प्याइक, सुध-तीन भाव
१०६ ५७ ११. पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ-तीन भाव
१०९ ५८-६० १२. रूपातीत, अन्या, अपाय-तीन भाव
१०९ ५८-६० १३. विपाक, संस्थान, शुक्लध्यान-तीन भाव
१०९ ५८-६० १४. द्रव्य, भाव, सुद्ध-तीन भाव १५. तत्व, नित्य, प्रकासकं-तीन भाव
११३६१ १६. तत्व, द्रव्य, काय -तीन भाव
११५ ६२ १७. समय, सुद्ध, साध-तीन भाव
११७ ६३ १८. समय, सार्धं, ध्रुव-तीन भाव १९. संमत्त, वंदना, स्तुति-तीन भाव
११८ ६४ २०. पदार्थ, व्यंजन, स्वरूप-तीन भाव
१२०६५ २१. नन्द, आनन्द, सहजानन्द-तीन भाव
१२१ ६६ २२. विवहार, निस्चय, सुद्ध-तीन भाव
१२२ ६७,६८ २३. दर्सनाचार, न्यानाचार, तपाचार-तीन भाव
१२२ ६७,६८ २४. चारित्राचार, वीर्याचार इत्यादि भेद (२४ से ३६ पर्यंत) १२४ ६९.७०
गाथा क्र.६७ से ७१ तक में व्यवहार- निस्चय रूप से वर्णन किये गए हैं, जो ३६ x ३ = १०८ भेद निरोध अर्थात् १०८
आम्रव के लिये संवर रूप हैं। २५. अंतिम प्रशस्ति
१२६ ७१ २६. श्री त्रिभंगीसार : सिद्धांत सूत्र
१२९-१३२ २७. आध्यात्मिक भजन
१३३-१५२
श्री त्रिभंगीसार जी : मूल गाथा सूत्र
मंगलाचरण नमस्कृतं महावीरं, भवोद्भय विनासनं। त्रिभंगी दलं प्रोक्तं च, आस्रव निरोध कारनं ॥१॥ त्रिभंगी दल अस्मूह, जिन उक्तं जिनागमं । आयु त्रिभागं कृत्वा, त्रिभंगी त्रिति अस्तितं ॥२॥ आयुयं जिनं उक्तं, वर्ष षष्टानि निस्चयं । भव्यात्मा हृदये चिंते, त्रिभंगी दल स्मृतं ॥३॥ तस्यास्ति त्रिविधिक्रित्वा,दसास्ति त्रितिय उच्यते। मुहूर्त जिनं प्रोक्तं, समयादि त्रितिय स्तितं ॥४॥ त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं, समयादि त्रितिय स्तितं।
भव्यात्मा चिंतनं भावं, सुद्धात्मा सुद्धं परं ॥५॥ 900 जीवाधिकरण - त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं, भावं सय अठोत्तरं । मिथ्यात मय सम्पूर्न, रागादि मल पूरितं ॥६॥ सम्यक् दर्शन की भावना आस्रव निरोधक है. त्रिभंगी निरोधनं क्रित्वा, संमिक्त सुद्धभावना। भव्यात्मा चेतना रूपं, संमिक् दर्सनमुत्तमं ॥७॥ प्रथम अध्याय
त्रिभंगी प्रवेस भाव १. सुभ, असुभ, मिस्र : तीन भाव सुहस्य भावनं क्रित्वा, असुहं भाव तिस्टते। मिस्र भावं च मिथ्यात्वं, त्रिभंगी दल संजुत्तं ॥८॥ २. मन,वचन,काय : तीन भाव मनस्य चिंतनं क्रित्वा, वचनं विपरीत उच्यते। कर्मनं क्रित मिथ्यात्वं, त्रिभंगी दल स्मृतं ॥९॥
२६
जी मन,वचन, काय को रोककर आत्मज्ञान देने वाले शुद्ध निश्चयनयका आलम्बन लेकर स्वस्वरूप में एकाग्र हो जाते हैं, वे निरंतर रागादिभावों से रहित होते हएबन्ध रहित शुद्ध समयसारस्वरूपशुद्धात्मा का अनुभव करते हैं, यही संवर मार्ग है।

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