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की व्याख्या की है । किन्तु यह जैनधर्म की प्रमुख उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन धर्म वैज्ञानिक विशेषता है कि वह शुद्ध अध्यात्म का निर्वचन करता पद्धति पर आधारित सूक्ष्म अध्यात्म से समन्वित है। है। शुद्ध अध्यात्म' से हमारा अभिप्राय शुद्ध आत्मा परमाणु के एक प्रदेश से ले कर अनन्त सूक्ष्म तथा के स्वरूप से है। जिसमें पर-दुःख तथा परभावों की स्थूल स्कन्धों की विवेचना के साथ तीन लोक की मिलावट है वह शुद्ध अध्यात्म कैसे हो सकता है? वैज्ञानिक व्याख्या करनेवाला पर्यावरण, शाकाहार शरीरादिक की क्रिया अध्यात्म नहीं है।
(शाकाहार में भी काल तथा क्रिया-भेद से भक्ष्यसमस्त योगविद्या सामान्यतः हठयोग पर तथा अभक्ष्य की व्याख्या) आदि का विवेचन विस्तार से मन, वचन, शरीर पर आधारित है, लेकिन जैन । करने वाला जैनधर्म ही है। अत्यन्त प्राचीन काल में अध्यात्म शुद्धात्मा पर आश्रित है। आचार्य कुन्दकुन्द तीर्थंकरों ने संपूर्ण लोक को यह बताया था कि पेड़कहते है कि निश्चय दृष्टि से एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पौधे, जल, अग्नि, वायु आदि में जीव तथा जीवन से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि उनके प्रदेश पाया जाता है। अत: उनकी रक्षा करना स्वाभाविक भिन्न-भिन्न हैं। अतः दोनों की एक सत्ता नहीं है। कर्तव्य एवं प्राकृतिक नियम है। यदि इसका पालन वस्तुतः प्रत्येकद्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता है। कारण स्पष्ट नहीं किया गया तो प्रकृति (नेचर) और उसके है कि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ आधार- जीवन में प्रदूषण तथा विषमता फैल जायेगी और आधेय सम्बन्ध भी नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अपने उसके घातक दुष्परिणाम होंगे। वर्तमान का भौतिक आधार से है। इसलिये ज्ञान आधेय जाननपने रूप विज्ञान भी समय-समय पर यही चेतावनी देता रहता अपने स्वरूपाधार में प्रतिष्ठित है। ज्ञान और क्रिया है। इस प्रकार अध्यात्म विज्ञान का विरोधी न होकर रूप ज्ञान ज्ञान में ही है और क्रोध, अहंकार, माया, उसका पूरक है। आत्मा परमात्मा के जिस क्षेत्र में लोभ आदि जीव अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं । जैसे। विज्ञान का प्रवेश नहीं है, वह उसे पूर्ण रूप से अपनी बुद्धि में आकाश द्रव्य के आधार-आधेय प्रकाशित करता है। नोबल पुरस्कार विजेता रिचर्ड जीव की कल्पना की तो यह निश्चित हुआ कि ज्ञान फिनमन भी अपने एक व्याख्यान में यह स्वीकार कर ज्ञान में ही प्रतिष्ठित है। इसलिये ज्ञान क्रोधादि जीवों चूके हैं कि वास्तव में हम परमाणु को तब तक पूर्ण में नहीं है। क्षण भर पहले जो प्राणी क्रोध का भाव रूप से नहीं जान सकते हैं, जब तक जैनधर्म कर रहा था, वही अल्प समय बाद यह विचार करता निरूपित 'प्रदेश' तक विज्ञान की पहुँच नहीं हो जाती है कि मुझे इस छोटी-सी बात पर इतना उग्र क्रोध है। जिस क्षेत्र को परमाणु घेरता है उसे 'प्रदेश' कहते नहीं करना चाहिए था। यह किसने जाना? वास्तव हैं। इस प्रकार अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही जगत में जाननहारा ज्ञान है जो क्रोधादि जीवों को अपने . और जीवन को समझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका से भिन्न जानता है। क्रोधादिक जीव-ज्ञान को नहीं निभाते हैं। यथार्थ में जैनधर्म आध्यात्मिक है और जानते, क्योंकि वे जड़ किंवा अचेतन है। चेतन में विज्ञान भी। इसका निर्णय भविष्य ही कर सकेगा। ही जानने, देखने की शक्ति होती है। इसलिये
- भारतीय ज्ञानपीठ आध्यात्मिक पुरुष ज्ञाता-द्रष्टा होता है।
१८, इन्स्टिट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-3 ૧૨૮ | તીર્થ-સૌરભ
રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫
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