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श्रद्धा : सम्यक्त्व का पर्याय
डॉ. प्रियदर्शनाश्री • डॉ. सुदर्शनाश्री
श्रद्धा को धर्म का मूल माना गया है। श्री अभिधान राजेन्द्र कोष में कहा है
श्रद्धा परम दुलहा । अर्थात् श्रद्धा परम दुर्लभ है।
श्रद्धा के अभाव में आत्मबल का कुछ भी उपयोग नहीं होता ।
महात्मा गाँधी का कथन है
"
"To Trust is a virtu. अर्थात् विश्वास करना एक गुण है, अविश्वास दुर्बलता की जननी है। श्रद्धा या विश्वास के अभाव में आदमी जो भी कार्य करता है उसमें कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। सन्देह का अन्धकार उसे पथभ्रष्ट कर देता है । कहा है- संशयात्मा विनश्यति ।
श्रद्धा ही जीवन की रीढ़ है। रीढ़ के बिना जैसे शरीर गति नहीं करता। श्रद्धा ही मानव में मानवता का सृजन करती है और वही उसे कल्याण के पथ पर अग्रसर करती है।
जिसके हृदय में श्रद्धा नहीं होती, उसका मन पारे के समान चंचल बना रहता है ।
श्रद्धाहीन व्यक्ति के विचारों तथा क्रियाओं में कभी स्थिरता और दृढ़ता नहीं आती। इस कारण वह किसी भी साधना में एकनिष्ठ होकर नहीं लग पाता । कभी वह एक राह पर चलता है तो कभी दूसरी राह पर । परन्तु जो श्रद्धा
રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫
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निष्ठ होता है वह अपने अटल विश्वास (श्रद्धा) के द्वारा अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । गीता में कहा हैश्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परं संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वापरां शान्ति मचिरेणाधिगच्छति ॥
श्रद्धा के अभाव में मनुष्य चाहे कितनी भी विद्वता प्राप्त कर ले, उसका कोई लाभ नहीं होता। किसी ने कहा है
अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पाप प्रमोचिनी । यह आत्मा, श्रद्धामय ही है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा बन जाता है।
सिक्खधर्म ग्रन्थ में कहा हैनिश्चय निश्चय नित नित जिनके, वाहि गुरु सुखदायक तिनके । अर्थात् वे ही मनुष्य सुख पा सकते हैं जिनका हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण है ।
एक श्रद्धाहीन मनुष्य अपने सभी कार्यों में विचलित रहता है। उसके दिल या दिमाग में कभी स्थिरता नहीं होती ।
"Confidence makes a man Strong, There love have confidence in your self and your works.
अर्थात् श्रद्धा (विश्वास) मनुष्य को शक्तिशाली बनाती है । अतः अपने आप में और अपने कार्य में श्रद्धा रखो।
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તીર્થ-સૌરભ
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