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पर्यावरण संरक्षण व नारी
आज
देश का परिवेश लगता है कुछ बदला-बदला. क्योंकि विकास के नाम विश्व में हुआ है सृष्टि पर हमला । शस्य श्यामला धरती की हरियाली नष्ट हुई है, स्वर्ग समान थी वसुन्धरा, अब बंजर दिखने लगी है। सुजला धरती का जल सूखा, नदियों का पानी है दूषित, सुफला धरती फल से खाली और वायु है प्रदूषित ।
पशुओं को काटा जाता है, बूचड़खाने पनप रहे हैं, हिंसा का तांडव फैल रहा, औद्योगीकरण के नाम विश्व में आज प्रदूषण फैल रहा, भौतिकता के इस चक्रव्यूह में आज का मानव फंसता गया । नारी प्रकृति का मूल रूप है दया, क्षमा, करुणा से भरी, प्रकृति संरक्षण की जिम्मेदारी, उसके कंधों पर आन पड़ी।
ओजोन परत में छिद्र हुआ, रोगों का जाल बिछा भारी, वृक्षों पर भी चलती आरी । गौशालायें अब नहीं रहीं, मानव में मानवता नहीं रही।
રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫
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आलस्य तुम्हें तजना होगा, हाथों से काम करना होगा, तज भौतिकता की चमक-दमक, अध्यात्म - शिखर चढ़ना होगा । 'उषा' की है यही चाह, प्रकृति प्रेमी हो हर इक जन, जगमग प्रकाश फैले जग में, हो पर्यावरण संरक्षण ॥
का
जागो बहनों ! सोचो, समझो, अपने कर्तव्य को पहचानो, कृत्रिमता से ना नेह करो, जो प्राकृतिक है उसे अपनाओ । वृक्षारोपण के द्वारा, तुम धरती को हरा-भरा कर दो, पशुओं का पालन करके, तुम पशुधन विनाश को भी रोको ।
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श्रीमती उषा पाटनी
३६५, कालानी नगर, इन्दौर
તીર્થ-સૌરભ 943
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