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का नाम नन्दलाल था, जो बहुत ही सुयोग्यविद्वान था और पण्डितजी के पठन-पाठनादि कार्यों में सहयोग देता था। मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द इनके प्रमुख शिष्य थे।
एकदिन जयपुर में एक विदेशी विद्वान शास्त्रार्थ करने के लिए आया। नगर के अधिकांश विद्वान उससे पराजित हो चुके थे। अतः राज्य कर्मचारियों और विद्वान पंचोंने पण्डित जयचन्दजीसे, उक्त विद्वानसे शास्त्रार्थ करने की प्रार्थना की। पर उन्होंने कहा कि आप मेरे स्थान पर मेरे पुत्र नन्दलाल को ले जाइये। यही उस विद्वान को शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा। हुआ भी यही। नन्दलालने अपनी युक्तियों से उस विद्वान को परास्त कर दिया। इससे नन्दलाल का बड़ा यश व्याप्त हुआ और उसे नगर की ओर से उपाधि दी गई। नन्दलालने जयचन्दजी को सभी टीकाग्रन्थो में सहायता दी है। सवार्थसिद्धि की प्रशस्ति में लिखा है - लिखी यहै जयचन्दनै सोधी सुत नन्दलाल। बुधलखि भूलि जु शुद्ध करी बांचौ सिखै वो बाल॥ नन्दलाल मेरा सुत गुनी बालपने तैं विद्यासुनी। पण्डित भयौ बड़ी परवीन ताहूने यह प्रेरणकीन॥
पण्डित जयचन्दजी का समय वि. सं. की. १९वीं शती है। इन्होंने निम्नलिखित ग्रंथों की भाषा वचनिकाएं लिखी हैं - १. सर्वार्थसिद्धि वचनिका (वि.सं. १८६१ चैत्र
शुक्ला पञ्चमी) २. तत्त्वार्थसूत्र भाषा ३. प्रमेयरत्नमाला टीका (वि.सं. १८६३ आषाढ़
शुक्ला चतुर्थी बुधवार) ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा (वि.सं. १८६३ श्रावण
कृष्णा तृतीया)
५. द्रव्यसंग्रह टीका (वि. सं. १८६३ श्रावण
कृष्णा चतुर्दशी और दोहामय पद्यानुवाद) ६. समयसार टीका (वि. सं. १८६४ कार्तिक
कृष्णा दशमी) ७. देवागमस्तोत्र टीका (वि. सं. १८६६) ८. अष्टपाहुड भाषा (वि. सं. १८६७ भाद्र
शुक्ला त्रयोदशी) ९. ज्ञानार्णव भाषा (वि.सं. १८६९) १०. भक्तामर स्तोत्र (वि.सं. १८७०) ११. पदसंग्रह १२. चन्द्रप्रभचरित्र (न्यायविषयिक) १३. धन्यकुमारचरित्र
पण्डित जयचन्द की वचनिकाओं की भाषा ढुंढारी है। क्रियापदों के परिवर्तित करने पर उनकी भाषा आधुनिक खड़ी बोली का रूप ले सकती है। उदाहरणार्थ यहाँ दो एक उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं -
'बहुरि वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्यवचन, भाववचन। तहाँ वीर्यान्तराय मतिश्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होते अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयते आत्माके बोलनेकी सामर्थ्य हो, सो तौ भाववचन है। सो पुद्गलकर्मके निमित्ततें भया तातें पुद्गलका कहिये बहुरि तिस बोलने का सामर्थ्य सहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिकरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये ते पुद्गल ही है। ते श्रोत्र इन्द्रिय के विषय है, और इन्द्रियके ग्रहण योग्य नाहीं हैं। जैसे घ्राणइन्द्रियका विषय गधव्य है, तिस घ्राण कै रसादिक ग्रहण योग्य नहीं हैं तैसें।"सर्वार्थसिद्धि ५-१९।।
રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫
તીર્થ-સૌરભ | ૧૬૧
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