Book Title: Tirth Saurabh
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 168
________________ womenwomen कहावत है-'एक मसखरी री सौ गाल' अर्थात् अभिमान स्पष्ट झलक रहा है। माया भी हास्य एक मसखरी करने वाले को सौ गालियाँ खानी से उत्पन्न होती है। मायावी मनुष्य ऊपर से पड़ती है। सदा प्रसन्नचित्त रहता है। उसके मन में चाहे कई बार क्रोध बिना कारण भी आ जाता कितना ही कपट भरा हो किन्तु ऊपर से वह है। जब वह उदयावस्था में होता है तो बाहरी हँसमुख रहता है, उसका मुख कमल की पंखुडी निमित चाहे मिले, चाहे न मिले, क्रोध की के समान खिला हुआ रहता है और वाणी चन्दन अभिव्यक्ति हुए बिना नहीं रहती। क्रोध अपने जैसी शीतलता प्रदान किया करती है लेकिन लिए भी उत्पन्न होता है, दूसरे के लिये भी . उसके हृदय में कतरनी छिपी रहती है। मौका उत्पन्न हो सकता है, अपने और पराए दोनों पाते ही वह सर्वनाश तक कर देता है। यह के लिए भी उत्पन्न हो जाता है और बिना तीसरा लक्षण हृदय में गुप्त रहता है, बाहर प्रकट कारण भी उसकी उत्पत्ति सम्भाव्य है। इस प्रकार नहीं होता। ऐसा मायावी व्यक्ति मुखौं या भोले क्रोध के चार भेद होते हैं। सोलह में चार लोगों को ही ठगने में समर्थ होता है, मतिमानो का गुणा करने पर चौंसठ भेद हो जाते हैं। को नहीं। विचक्षण लोग तो अपनी प्रतिभा के प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा से भेद करते बल से उसके अन्तर में छिपी माया को पहचान करते शास्त्रकारों ने तेरह सौ भेद कर दिए हैं लेते है। वे कदापि माया जाल में फंसकर अपना और सभी कषायों के मिलकर बावन सौ भेद नाश नहीं करते। मायावी लोगों के चक्कर में होते हैं। हास्य नामक नोकषाय में यद्यपि क्रोध, प्रायः ऐसे लोग फँस जाते हैं जिनको तृष्णा मान, माया और लोभ ये कषाय प्रत्यक्ष रूप या लालच होती है। जो परिग्रह-परिमाण-व्रत में प्रतीत नहीं होते किन्तु तो भी हास्य इन को लेकर चलते हैं और अनेक प्रकार के व्रत सभी कषायों का प्रमुख हेतु है। हास्य से क्रोध का परिपालन करते हैं, वे ही वस्तुतः चतुर ही नहीं मान की उत्पत्ति भी होती है। किसी या विचक्षण कहलाने के योग्य हैं। को देखकर हँसने का अर्थ होता है कि उसको 'मंगलकलश', 394, सर्वोदयनगर, आग्रारोड, तुच्छ समझते हैं और अपने आपको उससे बड़ा अलीगढ़ 202 001 (उ.प्र.) समझते हैं। इस भावना में छिपा हुआ मान या १५० तीर्थ-सौरभ Exariती वर्ष : २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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