Book Title: Tirth Saurabh
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 167
________________ नहीं हो सकता, मन की शान्ति तो विकारों को निकालने या नष्ट करने से ही प्राप्त हो सकती है। पानी में जमी हुई मिट्टी थोडी सी हलचल से ही सारे पानी को गन्दा कर देती है। मन में दबाकर रखे हुए भाव अनुकूल परिस्थिति पाकर सारे शरीर में तूफान पैदा कर देते हैं। रसोइया रसोई बनाने के पश्चात यदि जलते हुए कोयलों पर राख डाल दें जिसको मारवाड़ी भाषा में 'चूलो ओटा दियो' कहते हैं तो इसका आशय यही समझना चाहिए कि चूला ठंडा पड़ गया। कोई उस ढेर का स्पर्श करेगा तो उसका जलना स्वाभाविक है। ठीक यही दशा क्रोध की भी है। अन्त अवस्था में उसके भड़कने की सम्भावना बनी रहती है। उसकी तो क्षायिक स्थिति में ही भड़कने की सम्भावना का अभाव होता है। क्रोध के चार प्रकार हैं-एक वह जो उत्पत्ति से अन्त तक ज्यों का त्यों बना रहे। ऐसे क्रोधाविष्ट व्यक्ति को दीर्घरोषी भी कहते हैं। क्रोध की दूसरी अवस्था एक वर्ष तक ऐसी रहती है। वर्ष की समाप्ति के पश्चात यदि कोई व्यक्ति बीते प्रसंग की चर्चा भी करे तो भी उसका मन विकृत नहीं होता। तीसरे प्रकार का क्रोध चार मास पर्यन्त एक सरीखा रहता है। चार महीने के पश्चात् उसकी क्रोध की प्रकृति समाप्त हो जाती है। उसके मन में महान परिवर्तन आ जाता है। चौथे प्रकार के क्रोध की स्थिति केवल पन्द्रह दिन तक ही रहती है। पन्द्रह दिन के पश्चात् यदि क्रोध उत्पन्न हो जाए तो वह तुरन्त इसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे पानी में खींची गई लकीर। यह पानी की लकीर का सा क्रोध प्रायः उत्तम व्यक्तियों में ही दीखने को मिलता है। उत्तमोत्तम व्यक्तियों में तो क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता। इसका कारण है कि क्रोध को उत्पन्न करनेवाला उनका मोहनीय कर्म निस्तेज हो चुका होता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म भी क्षय हो जाते हैं। ऐसे सुधी साधकों में कभी क्रोध उत्पन्न होता ही नहीं। ऐसे ही साधकों को सर्वज्ञ, वीतरागी, केवलज्ञानी आदि नामों से पुकारा जाता है। कषाय की एक विशालवृक्ष से तुलना की जा सकती है जिसका केवल तना ही नहीं होता किन्तु शाखाएँ व प्रशाखाएँ भी होती हैं, जिनके फैल जाने से कषाय विस्तार रुप धारण कर लेता है। कषायों का संकुचित रूप 'नोकषाय' है। यहाँ 'नो' का अर्थ निषेध नहीं है किन्तु थोड़ा या अल्प। दूसरे शब्दों में इसे थोड़ाथोड़ा कषाय कह सकते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ये कुटिल कषाय हैं। इनके उदय में आते ही व्यक्ति क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी के रूप में सामने आता है। शरीरजन्य क्रियाओं में नौ बातें प्रकट हो उठती हैं। नौकषाय शारीरिक परिणमन है। आंशिक रूप में जो कषाय हैं, उनमें से प्रथम नोकषाय हास्य है। कषायों के फैलाव की 'हास्य' आधारशिला है, कषायों का बीज है। जैसे बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है, वैसे ही हास्य से कषाय उत्पन्न होते हैं। हास्य से क्रोध की उत्पत्ति भी होती है। किसी की हँसी करें, मजाक उड़ायें तो हँसी के लक्ष्य को क्रोध आ जाता है। मारवाड़ी में રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫ તીર્થ-ઑરભા ૧૪૯ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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