Book Title: Tirth Saurabh
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 151
________________ A nsweweWiawwwsANA PROI00000000016sha Nouamikamuk.comOoomHOORNOONGARVAS N A अणुव्रतोंका पालन : आदर्श और सम्भावनाएं पं. श्री नीरजजी जैन भगवान महावीर के शासन में धर्म की साधना को सागार धर्म और अनगार धर्म के रूप में दो प्रकार का कहा गया है। जिस गृहस्थ को संसार-शरीर और परिग्रह आदि विषयों से विरक्ति होने लगती है वह उदासीन श्रावक, जब देशकाल की परिस्थितियों के कारण, शारीरिक सीमाओं के कारण, अभ्यास की अपूर्णता के कारण और राग-द्वेष की तदनुकूल कृशता के अभाव के कारण, अपने आपको महाव्रतों के निर्दोष पालन में पूरी तरह समर्थ नहीं पाता तब । तक वह मुमुक्षु अणुव्रतों की भूमिका में ही अपनी साधना यात्रा प्रारंभ करता है और क्रमशः उसके सोपानों पर आरूढ़ होता चला जाता है। ___ आगे जाकर जब साधक को अपनी अनासक्ति पर भरोसा होने लगता है तथा संसारशरीर और भोगों के प्रति उसके मन में तीव्र अरुचि उत्पन्न होती है, तब यदि मुनिपद का निर्वाह करने की अन्य अनुकूलताएं प्राप्त हो तो ऐसा निष्ठावान साधक मानव-जीवन का महानतम संकल्प धारण करके, महाव्रती का गौरवशाली, त्रिकाल वन्दनीय पद ग्रहण करने की ओर बढ़ता है। दीक्षा गुरु उसकी निष्ठा, पात्रता, क्षमता और समर्पणभाव का आकलन करके उसे दैगम्बरी दीक्षा प्रदान करते हैं। दीक्षा के उपरांत गुरु ही अपने संरक्षण तथा अनुशासन में साधक का मार्ग-दर्शन करते हुए उसे साधना की ऊंचाइयों तक जाने का अवसर देते हैं। इस प्रकार श्रावक धर्म और मुनिधर्म में साध्य-साधक संबंध सिद्ध होता है, परंतु श्रावक धर्म मात्र साधक नहीं, वह उपने आप में साध्यभी है क्योंकि उससे वर्तमान पर्याय में शुभ्रता आती है, पापों का नाश होता है और वह मोक्ष का परंपरा कारण भी बनता है। कुछ लोग व्रतादिक की साधना को एकांत से आस्रव-बंध का ही हेतु मानकर अविरति और व्रताचरण को, अथवा पाप और पुण्य को समान माननेकी भूल करते हैं, परंतु आगम का मंतव्य ऐसा नहीं है। यह ठीक है कि तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय में व्रतादिक को शुभास्रव का हेतु बताया है, परंतु आगे नवमें अध्याय में निर्जरा के कारणों में भी उन्हीं व्रतादिक की गणना करके आचार्य उमास्वामी महाराज ने आगम का अभिप्राय स्पष्ट कर दिया है। वास्तव में व्रत के दो पक्ष होते हैं। पहला उसका प्रवृत्तिमूलक पक्ष है और दूसरा उसमें अनिवार्यतः निहित निवृत्ति को सूचित करता है। जैसे किसीने एकासन का नियम लिया तो उसकी प्रतिज्ञा तो यही मानी जायेगी कि 'आज मुझे एक बार ही भोजन करना है,' परंतु इस नियम का निवृत्ति परक अभिप्राय यह है कि मैं जो रोज तीन बार भोजन ग्रहण करता हूं उसमें से आज मेरे दो बार के भोजन का त्याग है, केवल एक बार ही लेना है। इसमें भोजन लेने की जो प्रवृत्ति मैं करूंगा उससे तो आस्रव होगा, परंतु दो बार का भोजन त्यागने रूप जो निवृत्ति हुई है, वह રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫ તીર્થ-સૌરભ 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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