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पर इतना तय है कि गांधीजी के नेतृत्व में स्वदेशी मानस में 'स्वदेशी' की भावना निष्प्रभ होने की भव्य भावना के द्वारा अंग्रेजी शासन और लगी है। सिंहासन हिलाकर रख दिया गया।
आज का आदमी विदेशी आँख से जीवन स्वदेशी ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के जीने की सार्थकता आँकने लगा है। हमें जीवंत लिये उत्पादन के संस्कार दिये। कपास का उत्पादन सुख और सुविधा के लिये विदेशी भाने लगा है। किया गया। सूत कांता गया। अपने देशी सीमित यही परिणाम है कि हमारी स्वदेशी प्रतिमाएँ आज साधनों से अपने ही हाथों सूत कातना प्रारम्भ किया विदेशी परिधि पर दस्तक देने लगी हैं। गया और खादी बुनी गई। खादी की गरिमा थी। हमारे विचार और व्यवहार में गजब की खादी के आगे विदेशी वस्त्र और वेशभूषा निरर्थक गिरावट आ गई है। इस अनाहूत गिरावट का हेतु अनुभूत हो उठे। खादी धारण कर प्रत्येक । वैयक्तिक नहीं, सामूहिक है। जब शासन संविधान भारतवासी सुख और सन्तोष का श्वास लेने लगा। पर हावी हो जाता है, तब जीवन-विकास और अपने श्रम और साधन-शक्ति पर उसका गर्वित उल्लास के दरवाजे प्राय: बंद हो जाते हैं। आपाधापी होना स्वाभाविक है।
से आदमी की प्रामाणिकता हाथ से छूट जाती है खादी में कितने शहीदों की सुगंध आती है। . और उसका प्रभाव नीचे तक होता है। आज गांधी कितनी वीराङ्गनाओं और नो निहालों का देश- के देश में अप्रमाणिक जीवन जीने का मानों प्रेम अनुभूत हो उठता है। खादी के तार-तार में अभ्यास सा हो गया है। ऐसी स्थितिमें स्वदेशी स्वदेशी की झंकार सुनाई पड़ती है और इसी की भव्यभावना का मूल्याङ्कन कौन और कैसे कर भावना से अनुप्राणित हो कर देशवासियों को अपने सकता है। देश की माटी से, पानी से जीवंत आशा और इस अधम अवस्था से उबरने की शक्ति और विश्वास पेदा होना स्वाभाविक है। करोड़ो-कण्ठों सामर्थ्य आज भी 'स्वदेशी' में विद्यमान है। से एक ही स्वर फूट उठता है। यथा - स्वदेशीवाद वस्तुतः द्वेष का रास्ता नहीं है, वह _ 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।' मूलतः नि:स्वार्थ सेवा का सिद्धांत है और उसकी
स्वदेशी ने हमारे अंदर दायित्व निर्वाह की जड़ विशुद्ध अहिंसा अर्थात् प्रेम में है। गांधीजी भावना जाग्रत की थी। दायित्व निर्वाह की कहते हैं, अहिंसक मार्ग यह है कि जितनी उचित सम्भावना श्रम-साधना पर निर्भर करती है। श्रम मानी जा सके, अपनी उतनी आवश्यकताएँ पूरी से व्यक्ति में स्वावलंबन के संस्कार उत्पन्न होते करने के बाद जो पैसा बाकी बचे, उसका वह हैं। 'स्वदेशी' का उत्तम व्यवहार एक सच्चा प्रजा की ओर से ट्रस्टी बन जाए। स्वावलम्बी ही कर सकता है। आज हमारे जीवन अगर वह प्रामाणिकता से संरक्षक बनेगा तो से श्रम के संस्कार प्रायः समाप्त होने लगे हैं। जो पैदा करेगा, उसका सद्व्यय भी करेगा। जब फलस्वरूप हमारे विचार और व्यवहार में मनुष्य अपने आपको समाज का सेवक मानेगा, इकसारता निस्तेज हो उठी है। इससे हमारे मन- समाज की खातिर धन कमाएगा और समाज के
રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫
તીર્થ-ઓંરભ | ૧૩૯
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