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महाव्रतों की मर्यादा को सुरक्षित रख पाना बहुत द्वारा संस्थापित स्याद्वाद विद्यालय बनारस से कठिन है। आज वर्णीजी महाराज द्वारा लिखा अध्ययन करके निकलने के बाद उन्होने पचास गया दो हजार पृष्ठों से भी अधिक का प्रेरक वर्षों तक निरंतर लोकोपकारी साहित्य की रचना साहित्य उपलब्ध है जो हमारे लिये उनका अमर करके सार्वजनिक कल्याणकारी मार्ग की यात्रा अवदान है। समयसार पर उनके प्रवचनों के की। जब . तक उन्हें लौकिक प्रवृत्तियों से पूरी कैसेट आज एक अनमोल धरोहर हैं। अंत में संतुष्टि और अनासक्ति नहीं हो गई तब तक पं. ईसरी के उदासीन आश्रम में सात वर्ष की एकांत भूरामलजीने चारित्र के पथ पर कदम बढ़ाना साधना और चौंतीस दिनों की सल्लेखना पूर्वक, उचित नहीं समझा।। १९६१ में वर्णीजीने उत्तम सल्लेखना मरण प्राप्त वृद्धावस्था में इन महापुरुषने अपनी व्रत किया।
सम्पदा को बढ़ाने का साहस किया। सन् १८९१ गणेशप्रसाद वर्णी के द्वारा दीक्षित क्षुल्लक में जन्मे भूरामलजीने १९४७ में, छप्पन वर्ष की शिष्यों में श्री जिनेन्द्र वर्णीजीने नेन्द्र सिद्धांत आयु में सातवीं प्रतिमा के व्रत धारण किये। कोश' की रचना करके, अणुव्रती होते हुए, . इसके बाद भी वे आठ वर्ष तक व्रती श्रावक आचार्य कोटि की श्रुतसेवा की है। उनका विपुल रहकर ही साधना करते रहे। फिर चार साल साहित्य और सैकड़ों आडियो कैसेट उनकी । क्षुल्लक-एलक पद पर अभ्यास करने के बाद, श्रुत-साधना के ज्वलंत प्रमाण हैं। श्री जब लौकिक कार्यों के प्रति उपेक्षा भाव और मनोहरलालजी वर्णीने सिद्धांत और अध्यात्म संसार तथा शरीर के प्रति उत्कट वैराग्य मन में दोनों विषयों पर लेखनी चलाकर जिनवाणी के उदित हुआ तभी वे आगे बढ़े। चारित्र-चक्रवर्ती भण्डार को समृद्ध किया है। इन दो साधकों ने पूज्य आचार्य शांतिसागरजी के द्वितीय पट्टाधीश, अपने कालजयी कृतित्व से अणुव्रती साधकों की । महान दिगम्बर आचार्य पूज्य श्री शिवसागरजी सूची में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। और महाराज से दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त करके ब्र. अपने दीक्षा गुरु गणेश वर्णी का यश-वर्द्धन किया। भूरामलजी उनके प्रथम दीक्षित शिष्य 'मुनि है। क्षुल्लकश्री चिदानंद बाबाजी और क्षुल्लकश्री ज्ञानसागर' बने। उन्होंने आचार्य पद भी धारण पूर्णसागरजी आदि उनके अन्य शिष्यों ने भी ज्ञान किया और पूज्य विरागसागरजी तथा पूज्य प्रसार के क्षेत्र में पर्याप्त कार्य किया है। विद्यासागरजी को मुनि दीक्षा देकर कृतार्थ किया. अनवरत ज्ञानाराधक ब्र. भूरामलजी
आयु के अंत में स्वयं आचार्य पद त्यागकर अणुव्रतों की प्रभावना करनेवाले दूसरे उन्होंने उत्कृष्ट सल्लेखना मरण प्राप्त किया। . महापुरुष स्वनामधन्य ब्रह्मचारी पं. भूरामलजी ये उदाहरण मात्र दो ही नहीं है। अणुव्रतों हुए। भूरामलजीने युवावस्था में ही आजीवन के अनुशासन में बंधकर धर्म और समाज की अविवाहित रहकर माता सरस्वती तथा जिनवाणी सेवा करने वाले साधकोंकी सूची बहुत लम्बी की सेवा का संकल्प कर लिया था। गणेश वर्णी है। तीन तीन सरस्वती भवन स्थापित करनेवाले
-२४तयंती वर्ष : २५
तीर्थ-सौरभ
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