Book Title: Tirth Saurabh
Author(s): Atmanandji Maharaj
Publisher: Shrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba

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Page 145
________________ वैसा फल अवश्य प्राप्त करता है ।आचार्य अमृतचन्द्र आत्मा अनेकान्तमयी, अनन्तधर्मा है। फिर कहते हैं - भी, उसे ज्ञान मात्र कहा है। ज्ञान प्रसिद्ध है, __ "यद्यपि इस जगत में अनादि का अज्ञानी जीव स्वसंवेदनगम्य है, उससे आवनाभावी अनन्त धर्म के कहता है कि कर्म मेरे हैं, मैं उनका कर्ता हूँ। इस समुदाय से अभिन्न प्रदेश रूप आत्मा है। ज्ञान मात्र प्रकार वह क्रिया का पक्षपाती है, कर्तृत्व के अहंकार कहने में टंकोत्कीर्ण, निश्चल दृष्टि से युगपद्रूप - कम में डूबा हुआ है। लेकिन जब उसके अन्तरंग में और अक्रम रूप प्रवर्तते ज्ञान से अविनाभूत अनन्त सुमति जाग्रत हो जाती है, तब सम्यग्ज्ञान का उदय धर्म का समूह आत्मा है। आत्मा के ज्ञान मात्र भाव हो जाता है और वह योगों की क्रिया से उदास हो में अनन्त शक्ति उदित होती है, उघड़ती है। कर, ममता को मिटा कर, पर्यायबुद्धि को छोड़कर, जो आत्मा कर्मफल का वेदन आप ही करता निजस्वभाव को ग्रहण कर आत्मानुभव के रस में है वह पुनः दुःख के बीज द्रव्यकर्म को बाँधता है भीग जाता है।" और पुनः कर्मफल को वेदता हुआ सुखी-दुःखी ___यह सिद्धान्त है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने । होता है तथा फिर दुःख के बीज द्रव्यकर्म बाँधता है। स्वभाव से उत्पन्न होता है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के ज्ञान से अन्य या परभाव को 'मैं' रूप अनुभव करना गुण को उत्पन्न नहीं कर सकता। जीव में राग-द्वेष अज्ञान चेतना है। के उत्पन्न होने में अज्ञान निमित्त है जो उस जीव के अज्ञानचेतना दो प्रकार की है - कर्मचेतना और ही अशुद्ध परिणाम हैं । किन्तु निमित्त कभी कर्त्ता नहीं कर्मफळचेतना । ज्ञान के सिवाय अन्य जीवों का कर्ता होता। क्यों कि यह प्रश्न है कि यदि एक द्रव्य अन्य रूप अनुभव कर्मचेतना है और भोक्ता रूप अनुभव के परिणमन में निमित्त हो, तो वह स्वयं अन्य द्रव्य . कर्मफलचेतना है। यो दोनों ही अज्ञानचेतना हैं जो के स्वभाव से उत्पन्न होता है या अपने स्वभाव से? संसार की बीज है। यदि वह स्वभावजन्य परिणाम से उत्पन्न होता है तो वर्तमान में कर्म का उदय आने पर ज्ञानी फिर कर्तृत्व कहां है? और यदि निमित्तभूत अन्य विचारता है कि यह पूर्व में बँधे हुए कर्मों का कार्य द्रव्य के स्वभाव से उत्पन्न होता है तो उसका आकार है, मेरा कार्य नहीं है और न मैं उसका कर्ता हूँ। मैं भी वैसा होना चाहिए जो नहीं होता है। वास्तव में तो शुद्ध चैतन्य मात्र इनसे अत्यन्त भिन्न, निराला, कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य में अपना गुण-स्वभाव नहीं अखण्ड आत्मा परमतत्त्व हूँ। सम्पूर्ण कर्मफल की डाल सकता है। संन्यास-भावनावाला ज्ञानी चिंतन करता है कि मैं __ ज्ञान चेतना कैसी है? उत्तर है - चमकती, कर्म के उदय का मात्र ज्ञाता-द्रष्टा हूँ। जागती, चैतन्य रूपी ज्योति है। ज्ञान पूर्ण, अच्युत वस्तुतः जैनधर्म वीतराग-विज्ञान है। दो और शुद्ध स्वरूप है। ज्ञानी ज्ञेय पदार्थ से कुछ भी सहस्राब्दियों के पूर्व ही आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुड विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, जैसे दीपक प्रकाशने (सुत्तागमो) ग्रन्थों में आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व योग्य घट-पटादि पदार्थों से विक्रिया को नहीं प्राप्त का अभाव सिद्ध कर शुद्धात्मा को दर्शाया था। यद्यपि होता। विश्व के अनेक दर्शनों ने परमाणु आत्मा और योग 'રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫ તીર્થ-સૌરભ | ૧૨૦ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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