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अध्याय-७
व्रत और दान
आ
ध्यात्मिकता के सन्दर्भ में जैन परम्परा में व्रत और दान का विशेष स्थान है । इस अध्याय में इन्हीं का सविस्तार वर्णन किया गया है I
व्रत-स्वरूप
• हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिगृहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।।१।।
हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन व परिग्रह से ( मन, वचन व काया द्वारा) विरत होना ही व्रत है । (१)
तत्त्वार्थ सूत्र
• देशसर्वतोऽणुमहती ।।२।।
आंशिक विरति अणुव्रत व सम्पूर्ण विरति महाव्रत
व्रत-भावनाएँ
• तत्स्थैर्यार्थं भावना: पंच पंच (३५
उन (उपरोक्त सूत्रों में वर्णित व्रतों) को स्थिर करने के लिये प्रत्येक की पाँच पाँच भावनाएँ हैं । (३)
23 प्रत्येक व्रत को स्थिर करने वाली पाँच-पाँच भावनाएँ निम्नानुसार हैं : ईर्यासमिति, मनोगुप्ति, एषणासमिति,
अहिंसा-व्रत
आलोकितपानभोजन |
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हैं । (२)
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सत्यव्रत अनुवीचिभाषण, क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, निर्भयता व हास्यप्रत्याख्यान । अचौर्यव्रत अनुवीचि अवग्रहयाचन, अभीक्ष्णअवग्रहयाचन, अवग्रहावधारण, स्वधर्मी से अवग्रहयाचन व अनुज्ञापितपानभोजन ।
ब्रह्मचर्यव्रत सेवितशयन वर्जन, कामकथा वर्जन, परलिंगाावलोकन वर्जन, पूर्वरतिस्मरण वर्जन व प्रणीतरस भोजन वर्जन ।
अपरिग्रहव्रत
मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप तथा शब्द पर समभाव रखना ।
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आदाननिक्षेपणासमिति
व
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