Book Title: Tattvartha sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, D S Baya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 177
________________ 13) : तत्त्वार्थ सूत्र : बन्ध-तत्त्व • नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ।। ११ । । आयुकर्म-प्रकृति के चार भेद हैं - नारक-आयु, तियंच-आयु, मनुष्य--आयु तथा देव-आयु । (११) ' गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहनन् स्पर्शरस गन्धवर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपघातपराघातातपोद्द्योतोच्छ वासविहायोगतय: प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्म पर्याप्तस्थिरादेयशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ।।१२।। नामकर्म की ४२ प्रकृतियों में - १४ पिण्ड-प्रकतियाँ हैं - १. गति, २. जाति, ३. शरीर, ४. अंगोपांग, ५. बन्धन, ६. संधात, ७. संस्थान, ८. संहनन, ६. स्पर्श, १०. रस, ११. गन्ध, १२. वर्ण, १३. आनुपूर्वी, और १४. विहायोगति; आठ प्रत्येक प्रकतिया हैं - १५. अगुरुलधु, १६.उपधात, १७. पराघात, १८. श्वासोच्छवास, १६. आतप, २०. उद्योत, २१. निर्माण, एवं २२. तीर्थकरत्व तथा स्थावर-त्रस के दो दशक हैं - २३-२४. साधारण व प्रत्येक शरीर, २५-२६. स्थावर व त्रस, २७-२८. दुर्भग व सुभग, २६-३०. दुःस्वर व सुस्वर, ३१-३२. अशुभ व शुभ, ३३-३४. बादर व सूक्ष्म, ३५-३६. अपर्याप्त व पर्याप्त, ३७-३८. अस्थिर व स्थिर, ३६-४०. अनादेय व आदेय, एवं ४१-४२. अयश व यश। (१२) • उच्चैर्नी५ ।।१३।। गोत्र कर्म के उच्च-गोत्र व नीच-गोत्र ये दो भेद हैं। (१३) • दानादिनाम् ।।१४।। अन्तराय-कर्म के पाँच भेद हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय व वीर्यान्तराय। (१४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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