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132 : तत्त्वार्थ सूत्र : बन्ध-तत्त्व
स्थिति-बन्ध - • आदितस्तिसुणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य:
परास्थिति: ।।१५।। पहले की तीन प्रकृतियों अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व वेदनीय
तथा अन्तराय की उत्कृष्ट-स्थिति तीस कोटा-कोटी सागरोपम की
होती है। (१५) • सप्ततिर्मोहनीयस्य ।।१६।। मोहनीय-कर्म की उत्कृष्ट-स्थिति सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम की होती
है। (१६)
• नामगोत्रयोविंशति: ।।१७।
नाम व गोत्र कर्म की उत्कृष्ट-स्थिति बीस कोटा-कोटी सागरोपम की
होती है। (१७)
• त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ।।१८।।।
आयुष्य-कर्म की उत्कृष्ट-स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। (१८)
• अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । (१९।।
वेदनीय-कर्म की जधन्य-स्थिति बारह मुहूर्त की होती है। (१६)
• नामगोत्रयष्टौ ।।२०।।
नाम व गोत्र कर्मों की जधन्य-स्थिति आठ मुहूर्त की होती है। (२०)
• शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ।। २१ । ।
शेष-कर्मों की जधन्य-स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। (२१)
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