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108 : तत्त्वार्थ सूत्र : व्रत और भावनाएँ
२. असत्य - • असदभिणानमनृतम् ।।९।। असत् को स्थापित करना अनृत्-असत्य है। (६) ३. चौर्य - • अदत्तादानम् स्तेयम् ।।१०।। (स्वामी द्वारा) अदत्त किसी वस्तु को लेना चोरी है। (१०)
४. अब्रह्म - • मैथुनमब्रह्म ।।११।। (मनसा, वाचा, कर्मणा) मैथुन का सेवन ही अब्रह्म है। (११) ५. परिग्रह - • मूर्छा परिगृहः ।।१२।। (वस्तुओं में) ममत्व-भाव, आसक्तिभाव, गृद्धि या मूर्छा रखना ही
परिग्रह है। (१२) व्रती - • नि:शल्यो व्रती ।।१३।। शल्य-रहित' ही व्रती है। (१३)
• अगार्योनगार्यश्च ।।१४।। व्रती (दो प्रकार के) अगारी - गृहस्थ तथा अनगार - गृहत्यागी होते
हैं। (१४)
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शल्य तीन हैं - कपट या ठगने की प्रवृत्ति, निदान या भोगों की लालसा, व मिथ्या-दर्शन या यथार्थ पर प्रतीति न होना । जव तक इन शल्यों का प्रयत्न पूर्वक निवारण नहीं कर लिया जाता तब तक व्यक्ति व्रतों में स्थिर नहीं रह सकता है, तथा उसे सही अर्थों में व्रती नहीं कहा जा सकता है ।
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