Book Title: Tantra Adhikar
Author(s): Prarthanasagar
Publisher: Prarthanasagar Foundation

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Page 5
________________ तन्त्र अधिकार मंन्त्र,यन्त्र और तन्त्र मुनि प्रार्थना सागर तंत्र अधिकार तंत्र-विद्या तंत्र शब्द की व्युत्पत्ति 'तै' धातु से हुई है। जिसका अर्थ है रक्षा करना। इस शब्द में 'तन्' धातु है जिसका अर्थ है विस्तार करना। इस तंत्र शब्द का तात्पर्य हुआ ऐसी विद्या जो विस्तार के साथ-साथ रक्षा भी करती है। तंत्र साधना को वाममार्ग भी कहते हैं। वैसे तंत्र शब्द को व्यवस्था के संबंध में भी कहते हैं। जैसे- प्रजातंत्र, लोकतंत्र, राजतंत्र, जनतंत्र, पाचनतंत्र, श्वसनतंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र आदि। आगम के अलावा ऋग्वेद तथा अर्थवेद में भी तंत्र का स्वरूप देखने को मिलता है। तंत्र साधना में पंचमकार पूजन का बहुत ही महत्व है- मद्य, मांस, मीन (मत्स्य), मुद्रा, मैथुन। वर्तमान में जो तंत्र का दुरुपयोग किया जाता है- परपीड़ा, मारण, उच्चाटन आदि वह तंत्र का वास्तविक स्वरूप नहीं है- ग्रन्थों में पंचमकार पूजन निम्न प्रकार है १. मद्य- जिस समय साधक की कुण्डलिनी, षट्चक्र का भेदन करके ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रार चक्र पर पहुंचती है उस समय सोम-कमल-चक्र से श्वेत रंग का अमृत टपकता है। यही मद्य है। २. मांस- वाणी पर संयम करके काम, क्रोध आदि पशुओं को ज्ञानरूपी तलवार से मारकर अपने सब कार्य परब्रह्म को समर्पित कर देना ही मांस प्रयोग है। ३. मीन (मत्स्य)- गंगा (इडा), यमुना (पिंगला) नदियाँ (नाड़ियों) के बीच जो दो मछलियां (श्वास-प्रश्वास) है उनका (प्राणायाम के द्वार) नाश कर देना ही मत्स्य सेवन हैं। ४. मुद्रा- सहस्रार महापद्म के अन्तर्गत बंद पंखडी के भीतर जो विशुद्ध करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी होने पर भी चन्द्रमाओं के समान शीतल आत्मा है, वहां कुण्डलिनी से मिल जाने पर ज्ञान प्राप्त करने वाले को ही मुद्रा साधक कहते हैं। ५. मैथुन- सहस्रार के ऊपर वाले बिन्दु (लिंग) परमात्मा से अपने जीवात्मा और कुण्डलिनी को ले जाकर मिलाना ही मैथुन क्रिया है। लेकिन जैन और दक्षिणाचारी वैष्णव में भी इस पंचमकार क्रिया को कोई स्थान नहीं है। 427

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