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(३)
स्वसंमरानन्द । बलोंकी श्रनाकर परमज्ञानी विद्याधर मित्रकी सहायतासे मोह शतसे युद्ध करनेको तयार हो मायगा और मोहकी सेनाका विस फरनेफा उपाय करेगा। धन्य हैं वे प्राणी जो इस युद्धमें परिणमन करते हैं। उनके पतरंगमें अध्यात्मिक वीररसका उत्साह आता है, और अब वह अपने गुणघाती किसी शत्रुका पराजय करते हैं तो उनके इपंकी सीमा नहीं रहती ! वे अपने भापमें परमोत्कृष्ट आत्मवीरताके रसका स्वाद ले स्वसमरानन्दके मामोदमें तृप्त रहने हुए दिन प्रतिदिन अपनी शक्तिको बढ़ाते चले जाते हैं और शिवनगरमें पहुँचने के विनोंको हटाते जाते हैं।
ज्ञानी विद्याधर थोड़े दिनोंक पश्चात ही संसार मसीभूत मात्माकी दुश्वमई भवस्थाको विचारकर अपने मासनको त्यागता है, भोर मोहनगरमें माकार माफ श मार्गसे उस आत्माको देखता है । वह मात्मा इस समय एक कोने में बैठा हुमा अचम्भेके साथ उसी विद्याधरको याद कर करके विचार रहा है कि वह कौन था जो मुझको कुछ सुनाकर चला गया, फई दिन हुए इससे यद्यपि मुझे उसकी बात याद नहीं है तथापि उन वचनोंकी मिठता और कोमलता भमतक मेरे मनको सुहावनी मालम हो रही है। वह अवश्य मेरा कोई हितू ही होगा। अब मैं उसके मनोहर शब्दोंको फिर कब सुन ! यह विभावपरिणतिसे परेशान आत्मा ऐसा मनन कर रहा था, कि यकायक वह विद्याधर चोक उठ', " हे मात्मन् ! क्या मिन्ता कर रहा है ? क्या तुझे अभीतक अपने रुपकी खबर नहीं है ! तू चैतन्यपदका पारी ममल' अटूट भसं
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