Book Title: Swasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 82
________________ स्वममरानन्द। (७२) कांप रही है, उमको साहस नहीं होता कि वह आगे बढ़ सके। यह वीरात्मा स्वसमाधिके नशे में उन्मत्त होता हुआ अपनी परिणामरूपी सेनाको बड़े वेगसे चलता है और ध्यान पड्गके दाव पेंच इतने वेगसे करता है कि मोहकी सेनाके कई बड़े २ योडा चोट खाकर गिर जाते हैं और फिर कभी मुंह न दिख एंगे ऐसी प्रतिज्ञा कर लेते हैं। वे ३६ योहा निम्न प्रकार हैं निद्रा,प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैनस शरीर, कार्माण शरीर, आहारक शरीर, आहारक मगोपांग, सम. चतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, रूप, रस, गंध, स्पर्श, मगुरुन्धुत्व, उपघात, परघात, उछास, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्ता भय हैं। इन नवीन सेना ओंके हठते ही यह नोर्वे गुणस्थानमें आनाता है और अनिवृत्ति गुणस्थानी कहलाता है। अब यहां केवल २२ प्रतियोकी सेना ही मोहकी सेनामें आती हैं । मैहानमें ८ वी श्रेणीमें ७२ प्रक. तियां थी, अब यहां ६ नहीं हैं; अर्थात हास्य, रति, मरति, शोक, भा, जुगुप्सा । केवल ६६ हो अपना नीचा मुंह किये हुए खड़ी हैं । यद्यपि मोहकी रंगकी भूमिमें अब भी १३८ प्रकृतियों की सेना पुरानी आई हुई मौजूद हैं । इस समय भी चेतन वीरके पास वही प्रथम शुक्लध्यान रूपी खड़ग है, पर यहां इसकी धार बहुत तीक्ष्ण होगई है। मोहके बलको तोड़ते २ इसकी धार तेज हो गई है | आठवेमें इसकी धार भी मन्द थी और ध्याताकी स्थिरता भी कम थी, पर यहां स्थिरता अधिक है।

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