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स्वसमरानन्द ।
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इस धर्मोपदेश के प्रतापसे अनेक भव्य जीव निकट संसारी सम्हलते हैं और मोहके जीतने के लिये बैरी कमर कस लेते हैं ।
यद्यपि प्रभु परमात्मा हैं तथापि मोहद्वारा एकत्रित सेनाओंका सर्वथा संगठन मोहके क्षय होनेपर भी अभी दूर नहीं हुआ है । आत्मक्षेत्रमें अघमरी दशामें भी कर्मसेनाएं अड्डा किये हुए हैं । युद्धमें साम्हना करनेवाली उदय होती हुई बाहरवें गुणस्थान में ५७ कर्मसेनाएं थीं । जिनमेंसे ५ ज्ञानावरण, ५ अंतराय, ४ दर्शनावरण तथा निद्रा और प्रचला इन १६ प्रकृतिरूपी सेनाओंके घट जानेपर ४१ प्रकृतियोंकी सेना अब भी साम्हने मौजूद है तथा तीर्थंकरकी अपेक्षासे ४२ की है । युद्धक्षेत्रकी सत्ता १२ वें में १०८ सेनाएं थीं। यहां उन्हीं ऊपरकी १६ प्रकृतियोंके घटाने पर अब भी ८५ प्रकृतियों की सेना पड़ी हुई है । यहां भी - आत्मा के प्रदेशोंक सकंप होनेके कारण सातावेदनीय कर्मकी नवीन सेना भी जाती है, परन्तु आकर चली जाती है, प्रभुको मोहित नहीं कर सक्ती । वास्तवमें जब मोह राजाको ही नष्ट कर डाला -तब फिर किस कर्मकी शक्ति है जो आत्माको अचेत कर सके । धन्य है यह वीर जिसने अपने सच्चे अटूट पुरुषार्थके वलसे जीवन्मुक्त परमात्माका पद प्राप्त करके स्वसमरानन्दके अनुपम -लाभ लेनेका मार्ग अनन्त कालके लिये खोल दिया है । ( ३८ )
परम प्रतापी परमधीर वीर आत्मानें अपने साध्यकी सिद्धिमें - अपने आत्मोत्साहकी दृढ़ता से पूर्णता प्राप्त कर ली है - यह बात बड़े महत्वकी है । जिस गुणस्थानपर आजानेसे यह आत्मा मुक्तिः