Book Title: Swasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 41
________________ " (३१) स्वसमरानन्द । होती है वे सदा ही परम दृढ़ताके साथ उद्योगशील रहते हैं। सुधाके स्वादका जो रसिक हो जाता है वह सर्व स्वादोंसे रहित परमानन्दमई स्वसमरानन्द की महिमाका विलाप्त करने में परम संतोषी रहता है। परम सुखमई राज्यका लोभी होकर यह मात्मवीर मोहके निमित्त कारण बाह्य परिग्रहके भास्को त्याग हलका हो मोह रानाको दिखला रहा है कि अब मैं सर्वथा वेधड़क हो तेरी सेनाके नाश करने में उद्यत हो गया हूं। मैंने वैराग्य-धाराको रखनेवाली तीव्र ध्यानमई खड्ग हाथमें उठाई है और सर्व प्रपंचनालसे छूट गया हूं। इसी लिये वस्त्र भी उतार डाले हैं, क्योंकि एक लंगो. टीका संबंध भी इस मनुष्यके अनेक विकल्प पैदा करता है-ऐसा धीरवीर परमहंस स्वरूप यह वीर निश्चल होकर धर्मध्यानके द्वारा मोहसे लड़नेको तैयार हो गया है । जब यह आत्मा स्वरूप रूपसमुद्रमें गुप्त हो डुबकी लगाता है तब सातवें गुणस्थानमें स्थिर हो जाता है । जब विकल्पमई विचारों में उलझता है तष छठेमें ही ठहरता है । प्रमादके कारण छठे स्थान का नाम प्रमत्तगुणस्थान है। आहार लेते हुए ग्रासका निगलना तथा विहार करते हुए समितिका पालन जब करता है तब उठी भूमिमें रहता है, परन्तु इनकार्यों ही के अंतरालमें जब स्वस्वरूपमें. रमता है तब सातवीं भूमिमें आजाता है । इस प्रकार चढ़ाव उतार करते हुए भी मोहकी सेनाको खूब साहसके साथ दबा रहा है । इस समय प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माया, लोभ सेनापतियोंकी सेनाने

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